Thursday, October 08, 2009

नामी कवि री नामी कहाणियां

भारतीय कविता में राजस्थानी कविता पटै जिण कवियां रा नांव आपां गिणां सकां बां में एक नांव मोहन आलोक रो है। कविता नै आब देवणियां हरावळ कवियां में तो मोहन आलोक रो नांव है, पण कहाणीकार रै रूप में आपरो नांव कोनी ! जद कै असलियत आ है कै आप री कहाणियां ई किणी कीमत में कमती कोनी। जिण ढाळै आप निजू अर नूंवा प्रयोगां रै पाण आधुनिक कविता में न्यारी-निरवाळी ठौड़ बणाई, उणी ढाळै कहाणी में ई नूंवै सूं नूंवां प्रयोग आप करिया है। हाल तांई आपरी फगत काव्य-पोथियां ई छपी है। ‘ग-गीत’, ‘डांखळा’, ‘चित मारो दुख नै”, ‘सौ सोनेट’, ‘वनदेवी: अमृता’ अर ‘चिड़ी री बोली लिखो’ आद। साहित्य अकादेमी रो मोटोड़ो पुरस्कार ई कविता खातर बरस 1983 में ‘ग-गीत’ पोथी नै मिल्यो, सो आप कवि रूप ई थापित हुयग्या। आप कविता रै अलावा ई खासो काम विविध विधावां अर अनुवाद पेटै राजस्थानी-हिंदी में करियो। जिको टैम-टैम माथै पत्र-पत्रिकावां में छ्प्यो ई पण कविता रो तुकमो घणो-घणो लांठो अर मोटो हुयां दूजै कामां री अंवेर-संभाळ सावळ नीं हुई। अठै कहाणी विधा नै लेवां तो डंकै री चोट कह सकां कै आप कहाणियां ई टणकी लिखी जिकी कै पत्र-पत्रिकावां में छपती ई रैयी। आप बरसां लग राजस्थानी री टाळ्वीं अर नामी पत्रिकां- मरुवाणी, हरावळ, हेलो, माणक अर जागतीजोत आद में छपियां। आं पत्रिकावां रा जूना अंक जोयां मोहन आलोक रो कहाणीकार रूप परतख निजर आवै।
श्री आलोक रै कहाणीकार रूप सूं म्हारी ओळखाण ‘उकरास’ रै सपादन पेटै सहयोग करता थकां हुई जद सांवर दइया वां री कहाणी ‘कुंभीपाक’ नै प्रतिनिधि कहाणी रै रूप संकलन में लीवी। ‘उकरास’ रा संपादक सांवर दइया री संपादकीय टीप ‘कुंभीपाक’ माथै इण भांत है-
“आज री विकराळ हुवती व्यवस्था में मिनख रो जीवण किण ढाळै नरक सूं ई माड़ो हुय रैयो है, इण रो एक पख ‘कुंभीपाक’ उजागर करै। आ कहाणी आज री व्यवस्था माथै केई सवाल खड़ा करै। कहाणी आवतै काल रै औरूं विडरूप हुवण रै खतरै कानी आंगळी सीध करै……” (उकरास; पेज-23)
‘कुंभीपाक’ में हरिजन अर सवर्ण री जिकी आरक्षणीय अबखायां है बां नै अंगेजतां आ दोनूं ई वरगां नै आपणी सुरगां सूं सोवणी (भारत) भोम कुंभीपाक नरक रो मारग सवायो लखावै। दूजै कानी आं रो आपसरी में आपरै वरगां री अदला-बदली रो सोच ई एक व्यंग्य नै प्रगटावै। कहाणी में शुद्र अर सवर्ण दोनूं ई आप आपरै खोळियै में जावण सूं नट जावै अर धरमराज सामीं शुद्र सवर्ण रै तो सवर्ण शुद्र रै खोळियै मांय जावण री इच्छा दरसावै। आजादी पछै देश मांय उपजी समाजू विडरूपता रो बखाण दोनूं पात्र आप आपरी दीठ सूं करै तो धरमराज रा ई पसीनां छूट जावै। इण ढाळै री बेजोड़ कहाणियां लिखियां उपरांत ई मोहन आलोक रै कहाणीकार रूप माथै हाल तांई किणी सावळ गौर कोनी करियो। राजस्थानी साहित्य में आपां रै अठै अबखाई आ है कै किणी रचनाकार री कोई पोथी छपियां ई उण नै उण विधा रै रचनाकार-रूप में गिणा-गिणावां। कदास ओ ई कारण है कै कहाणी-जातरा में कहाणीकार रै रूप में आं रो नाम अमूमन छूटतो रैयो है?
म्हारी दीठ में कवि मोहन आलोक री कहाणी-कला राजस्थानी तो कांई भारतीय भासावां रै किणी चावै-ठावै कहाणीकार सूं कमती कोनी। राजस्थानी मांय एक तो आधुनिक कहाणी रो घर छोटो, ऊपर सूं इन-मीन साढ़ी तीन कहाणीकार। कोढ़ में खाज कै कहाणी आलोचना री दीठ इत्ती मोळी कै फगत च्यार-पांच नांव ई बीं नै सूझै! नींतर कांई कारण है कै श्री आलोक री कहाणियां किणी आलोचना रै गड़कै नीं चढ़ी ?
कारण विचारां तो ठाह लागै कै एक तो आपां रै अठै शोध-खोज रो काम सावळ हुयो ई कोनी। दूजो कोलेज रा मास्टरजी फगत हाको करणियां रचनाकारां नै ई ओळखै। सो बां माथै ई कूड़ा-साचा शोध हुवै अर उपाधियां बंटै! फेर आपां रै साहित्य रा आलोचक गिणती रा ई है अर वां रा ई आपू-आप रा न्यारा-न्यारा नखरा है। सो आलोचना एक बंधी बंधाई सींव सूं बारै निकलै कोनी। बिना किणी लाग-लपेट रै अठै लिखतां म्हनै संको कोनी कै आधुनिक कहाणी री सरुआत विजयदान देथा सूं नीं कर परा आपां नै नृसिंह राजपुरोहित सूं करणी चाइजै। क्यूं कै बिज्जी लोककथावां रा कारीगर है। फगत दो-च्यार कहाणियां लिखण सूं बिज्जी नै आपां गुलेरी तो मान सकां, पण राजस्थानी कहाणी रा प्रेमचंद तो नृसिंहजी राजपुरोहित ई गिणीजैला। आपां नै लोककथा अर कहाणी रो आंतरो अबै समझ ई लेवणो चाइजै। क्यूं कै आधुनिक राजस्थानी कहाणी री जे कोई परंपरा है तो उण में मोहन आलोक रै नांव बिहूणी परंपरा आधी-अधूरी मानीजैला। सो म्हारै मुजब श्री आलोक री कहाणियां रो ओ संकलन छपण सूं कहाणी रै इतिहास-लेखन अर आलोचना में भूल-सुधार करण में सुभीतो हुवैला।
मोहन आलोक री कहाणियां में बगत रै साथै-साथै बदळतै हालात रा केई-केई दीठाव मिलै। बां रै कथा-संसार में निम्न मध्यम वरग रै आम आदमी रो दुख-दरद, बीं रो संत्रास, बीं री चिंतावां तो जाणै थोक में आई है। इण संग्रै री केई कहाणियां तो इण बात री ई साख भरै कै मिनख अर समाज नै दिसा देवण रो जिको काम प्रेमचंद साहित्यकारां नै सूंप्यो बो घणी चतराई सूं मोहन आलोक री कलम सूं हुयो है।
राजस्थानी कहाणी नै आधुनिक करण वाळा लेखकां में मोहन आलोक हरावळ रैया। कहाणी रै इतिहास में कहाणी रै आधुनिक हुवण रो बगत 1970-1975 रै लगैटगै रो मानीजै। इणी आठवैं दसक में श्री आलोक री केई कहाणियां- जियां ‘बुद्धिजीवी’(1974), ‘अलसेसन’(1974), ‘रामूं काको’(1975), ‘एक नूवीं लोककथा’(1973), ‘उडीक’(1973) अर ‘कुंभीपाक’(1973) आद नामी पत्रिकावां- हरावळ, मरुवाणी, हेलो अर जागतीजोत में छपी, पण आं कहाणियां रो जिकर हाल तांई ढंगसर कै बेढंग सूं ई कठैई हुयो ई कोनी।
‘उडीक’ कहाणी ‘हरावळ’ में इण संपादकीय टीप साथै छपी ही-
“किणी साथी री बेपरवाई एक हद तांई पूग’र आदमी में ऊब पैदा करै अर बो खुद नै हळको अर बेइज्जत मैसूस करण लागै। घणी ताळ तांई उड़ीकण रै बाद भी जद सामलै री तरफ सूं कोई जबाब नीं आवै तो बीं री मनगत रै हाथ सूं धीजै री डोर छूट जावै। युवा कथाकार मोहन आलोक तणाव भरी ‘उडीक’ री मनगत नै इण कहाणी में बखूबी सांवटी है।”
(हरावळ : दीवाळी विशेषांक, बरस-1973 पेज-5)
कहाणी ‘उडीक’ किणी री उडीक सूं उपजी मनगत री साव आधुनिक कहाणी है। कहाणी जिसी परंपराऊ कहाणी इण मांय नीं है। उडीक री बा मनगत ई कहाणीकार कहाणी रै रूप मांय प्रगटी जिकी एक लखाव मांय उपजतै तनाव नै तो उजागर करै ई है अर साथै जाणै प्रतीकां री मोमाख्यां ई कथाकार नै घेर लेवै कै उण रो वां सूं लारो छुड़ावणो ओखो हुय जावै। ‘हरावळ’ पत्रिका रै उण युवा कथाकार री उमर आज उण बगत री उमर सूं दूणी हुयगी, पण मजै री बात कै हाल तांई उण रै कहाणीकार रूप री सावळ ओळखण ई कोनी हुई अर कदास ओ ई कारण रैयो हुवैला कै आलोकजी कहाणी कानीं सूं हाथ ई खींच’र बैठग्या। राजस्थानी भाषा, साहित्य एव संस्कृति अकादमी, बीकानेर री मासिक पत्रिका ‘जागती जोत’ रै संपादन रो काम जद म्हैं संभाळियो तद घणी अरज कर’र आलोकजी सूं कहाणी लिखवाई ही, बा कहाणी- ‘रिकसै वाळो’ जागती जोत रै सितम्बर, 2002 रै अंक में छ्पी। ओ म्हारो सौभाग है कै कांई ठाह म्हारी अरजी रो सुफळ ?
इण कहाणी री संवेदना बाबत बात करां तो आ मैनत सूं टूट’र पंजाब कानी सूं बळद दांई नाथ काढियोड़ै एक पोसती मिनख री कहाणी है पण इण में कहाणीकार देस री विडरूपता माथै करारी चोट करै। व्यवस्था माथै चोट करणो उण रो दायित्व है बठै ई उण रै लेखन री सारथकता ई।
“आपणै इण महान देस री 55 साल री आजादी री उपलब्धि आ है कै आज ई मिनख मिनख माथै चढियो फिरै है। यूं संविधान मांय हरेक नागरिक नै समानता रो अधिकार है। जठै देस नै खेल-खेल मांय बेच देवण रो अधिकार है बठै ई किणी अस्पताळ विशेष में का’र खून बेचण वाळां री लैण मांय लाग जावण रो अधिकार है…………” (कहाणी ‘रिक्सै वाळो’ सूं)
डील सूं सफा ई बीत्योड़ै इण अमली रिक्सै वाळै साथै जिको कै लेखक नै रात री टैम अणसरतै मांय करणो पड़ै। लेखक नै घणी सहानुभूति उपजै। वो थोड़ै सै बगत मांय ठौड़-ठौड़ उण माथै दया दरसावै पण इण पळपळाट करती दुनिया माथै रिक्सै वाळै री खीज अर विरोध री पराकाष्ठा आपां नै जणा देखण नै मिलै जणा लेखक नै वो आपरै सबदां मांय बता देवै कै नियति री इण क्रूरता अर मिनखां रै उपजायोड़ै इण अत्याचार नै तो लगोलग झेलण मांय ई भलाई है। यूं भीख मांय लियोड़ी छिनेक री सुविधा तो म्हारै तांई दुख रो कारण ई’ज हुवैला- वो एक फुळियै री चढाई चढतो कहाणीकार नै साफ मना कर देवै-
“नईं बाबूजी। उतरणा नईं…… ओखा सोखा चढा लऊंगा। पैसे लित्ते ऐ…… फेर अज्ज तां तुसी उत्तर जाओगे पर काल नूं कोई नईं उत्तरुगा तां बुरा लग्गूगा……… मैन्नूं तां ए चढाइयां रोज ई चढणियां………।”
(कहाणी ‘रिक्सै वाळो’ री छेहली ओळियां)
आपां अठै देखां कै कहाणी में आयोड़ै पंजाबी भासा रै पुट सूं संवेदना तर-तर सघन हुंवती जावै अर एक सरल-सी छोटी दिखण वाळी घटना ई कहाणी बण जावै।
संपादकां नै हक हुवै कै बै रचना रो संपादन करै। जागती जोत रै मई,1997 रै अंक मांय श्री आलोक री एक कहाणी ‘चाल’ नांव सूं छपी है। जद कै कहाणीकार उण रो सिरैनांव ‘छाळ’ (उछाळ) राख्यो हो, क्यूं कै आ कहाणी एक छाळ चूकियोड़ै ‘हिरण’ (?) री कहाणी है।
आज आपां नै मिडिया अर बाजारवाद रै पैटै चरूड़ हुंवती साजिस अर अपसंस्कृति नै पोखण-परोटण रा हाका चौड़ैघाड़ै सुणीजण लागग्या है, क्यूं कै ओ ‘जिन्न’ बोतल सूं बारै निकळ’र आजाद हुयग्यो है। पण ‘छाळ’ कहाणी इण काळी-पीळी आंधी रो सांगोपांग संकेत बरस 1997 मांय आज सूं एक जुग पैलां ई दे दियो हो। कहाणी री सरुआत एक पत्रकार सूं बंतळ रै मारफत करीजी है।
“आप गांव रो जनजीवण देखणो चावो तो सोख सूं देखो ! जनजीवण देखण मांय कोई अठै रोकटोक नीं है। थोड़ी ई’ज ताळ मांय गांव री पिणघट सरू हुवण वाळी है। गांवां रो हांसतो खेलतो जनजीवण पाणी भरण तांई निसरैलो। कैमरो आपरै कनै है। काची कुंवारी ‘कुपळां’ रा उभार। घाबां री घाट मांय बारै ढुळती बांरी जवानी। अवसता री हद श्रम व्यायाम सूं घुटियोड़ा बांरा पुष्ट नितम्ब। सब आपरै कैमरै मांय कैद कर लेया आंनै सजा देया आपरै सै’र री नुमायश मांय।” (‘छाळ’ कहाणी सूं)
आ कहाणी आपरै अंत तांई पूगती-पूगती एक छाळ चूकियोड़ै अवसर अथवा चूकतै अवसर री कथा बण जावै।
“कांई अब किसनू आपरो कमरो पाछो बणा सकैलो ? स्यात नईं, क्यूं कै एकर छ्ळ चूक जायां पछै तो सा’ब आप जाणो हो कै हिरण जेहड़ै तेज भाजण वाळै ज्यानवर नै ई कुत्तो पकड़ लेवै है।”
(‘छाळ’ कहाणी री छेहली ओळियां)
श्री आलोक री कहाणियां बाबत आपां कह सकां हां कै वां मांय लाम्बी चौड़ी कथावस्तु तो कोनी हुवै पण किणी कविता दांई एक भावभोम रो बै कहाणी मांय रचाव दर रचाव रचै। बां आपरी हरेक कहाणी मांय किणी कथा-प्रयोग सूं आपरै रचाव री जाणै न्यारी-न्यारी बानगियां ई आपां रै सामीं राखी है। आपां नै मानणो पड़ैला कै श्री आलोक री कहाणियां राजस्थानी नै फगत आधुनिक बणावण री जोरदार कोसिस तो है ई साथै ई साथै वां मांय आपां नै बरसां पैलां ई कहाणी रै उत्तर आधुनिक तत्वां रो दीठाव करवा दियो हो।
श्री आलोक री कहाणी ‘एक नूवीं लोककथा’ जागतीजोत रै जुलाई-अक्टूबर, 1973 में छपी। कहाणी रै खुलासै खातर आपां उण बगत नै चेतै करां- बरस 1969 में बैंकां रो राष्ट्रीयकरण हुयो अर श्रीमती इंदिरा गांधी ‘गरीबी हटावो’ रो नारो ई इणी बरस दियो। उण पछै बरस 1971 में राजावां खातर ‘प्रीवीपर्स’ बंद हुयग्या। आ पूरी कहाणी एक प्रयोग है जिकी आपरी बुणगट सूं केई-केई अटैक करै। लोककथा रै सामीं ऊभी हुवण वाळी इण नूवीं कहाणी रो नांव ई ‘एक नूवीं लोककथा’ है। आ कहाणी आपरै नांव मांय ई एक कथा लियां है। लोककथा अर कहाणी में मोटो आंतरो आपां इणी दौर में सावळ समझ सक्या। जद कै तेजसिंह जोधा रै संपादन में छपी पत्रिका ‘दीठ’ खातर खुद विजयदान देथा लोककथावां छोड़’र कहाणियां मांडी अर ओ राजस्थानी रो दुरभाग रैयो कै इण पछै बिज्जी सूं कोई दूजो संपादक कहाणियां कोनी लिखवा सक्यो।
‘एक नूवीं लोककथा’ रै लिखण-छ्पण रै दौर नै ई राजस्थानी में कहाणी रै आधुनिक कहाणी हुवण रो बगत मानीजै। रिसी वोटर रै तप सूं डोलतै इंद्रासन री आ कहाणी आपरै प्रतीक रूप मांय दिल्ली रै सिंहासन सूं जुड़ी थकी आपरी जूनी बुणगट नै परोटता थकां ई निज रै मांय आधुनिक तत्वां नै परोटै। नेठाव सूं देख्यां आपां जाण जावां कै अठै असल में कथाकार आपरै प्रयोग रै मारफत वरतमान नै परंपरा सूं जोड़ण रो लूंठो काम कर रैयो है। कहाणी री ओळी-ओळी में राजनैतिक, सामाजिक अर व्यवस्थागत व्यंग्य इण नै एक इसी व्यंग्य कथा बणा देवै कै बांचती बगत पाठक नै ओ ध्यान ई नईं रैवै कै वो मोहन आलोक नै बांचै है कै चावा-ठावा व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई नै बांचै है !
श्री आलोक री कहाणी ‘जागण’ ई एक इसी जीवती जागती कहाणी है जिण में ध्वनि प्रदूसण जैड़ी वैश्विक समस्या बां सांगोपांग ढंग सूं उठाई है। आपां रै इण महान धारमिक देस मांय जागण कीं बेसी ई है-
“दोय बजतां-बजतां तो पूरो सै’र नींद री यातना मांय जळ बिन मछली दांई तड़पण लागग्यो; तो उन्नै सेठ रै चमचां सेठ नै छोटै जागण मोटै जागण या कैवणो चाइजै महान जागण रो फायदो दिरावण री तेवड़ी। स्पीकरां रा वोल्यूम ओर ऊंचा कर दिन्धा। जिकै सूं सगळो सै’र ई जागण मांय सामल हू जावै अर चूंची बण्यो ई सो नईं सकै।“ (‘जागण कहाणी सूं)’
अठै विक्रम अर बेताल री कथा बुणगट नै स्वीकारणो किणी फैसलै नै लेय’र नीं परोटियो है पण इण समस्या माथै एक लूंठी चोट करण वास्तै कहाणी री जरूरत बण’र चुनौती रूप कहाणीकार सामीं आई हुवैला। घरम री बात नै घरम रै सिवाय पटकणी देवणी किणी दूजी बुणगट रै पाण सधणो संभव ई कोनी हो। क्यूं कै अठै जिण जागण सूं सेठ रै छोरै री उमर बधावणी ही वठै उण री मौत रो कारण ई इणी जागण सूं काढणो जरूरी हो सो आ अटकळ फगत राजा वीर विक्रमाजीत री बौद्धिकता टाळ किणी पासी संभव नीं ही। आ एक सिध साहित्यकार री जागरूकता है नींतर जद साहित्य समाज रो दरपण है तो दुनिया री इण सागीड़ी उकळती अबखाई रो दरसाव का इलाज किणी दूजै साहित्यकार रै हाथां अजेस क्यूं नीं आयो।
कहाणी ‘बुद्धिजीवी’ मांय लेखक आपरै ई’ज साहित्यकार-समाज री थोथ नै लेय’र सामीं आवै। कलम नै हथियार समझण वाळो ओ समाज आपरै संकल्पां अर विकल्पां सूं जूझतो कियां खुदोखुद परास्त हुय जावै इण रो खुलासो आ जातरा कथा आपरै निरवाळै अंदाज मांय करै। निज रै बुद्धिजीवी वरग री इण निबळाई नै एक तकलीफ रै रूप मांय लेखक जणा कहाणी मांय ढाळै तद इयां लागै कै वो एक पूरै वरग नै एक प्रतीक मांय बांध रैयो है। आ कहाणी ठंडै प्रगतिवाद अर मिनख रै खून में धुळती तटस्थता री बेजोड़ कहाणी है। इण में जबरदस्त व्यंग्य ओ है कै कहाणी रा पात्र तो जातरा माथै है, पण बां मिनखां का कैवां बुद्धिजीवियां में मिनख री अदीठ-थिरता टस सूं मस हुवण रो नाम ई कोनी लेवै।
‘बाप’ कहाणी आपरी कथा-बुणगट अर विसय वस्तु पेटै राजस्थानी कहाणी रै उठाव रा नूंवा आयाम थरपै। आ कहाणी ‘माणक’ रै दिसम्बर, 1989 में छ्पी। इण कहाणी नै डा जहूरखां मेहर बरस 1993 मांय राजस्थानी पाठ्यक्रम मांय संपादन करतां सामल कर’र चावी करी। प्रकासन रै च्यार बरसां पछै ई आ कहाणी डा मेहर नै चेतै रैयी तो इण रो जस वांरी पारखी दीठ नै ई देवणो हुवैला। इण कहाणी री भाव भोम अर बेबस मध्यम वरगीय कथानायक री पीड़ अर वीं री अकल्पनीय परणति सूं वां आपरी संवेदना सांझी करी हुवैला। कोई आलोचक जद संवेदनसील पारखी दीठ लियां किणी रचना नै बांचै तद फगत उण रै कथात्मक रूप-सरूप माथै ई दीठ कोनी राखै बल्कि उण विधा खास रै प्रयोगात्मक सरूप री संभावनावां नै दीठ आडी राख्या करै। डा मेहर जणा इण कहाणी रो चुनाव इण में नवीनतम संभावनावां नै ओळखतां थकां ई करियो हुवैला नीतर इण कथा रै कथानायक रै अंर्तद्वंद्व नै ओळखण री वां नै रींड कांई ही? सपाट अर सीधै कथानक वाळी अलेखूं आदर्शवादी रचनावां तो वां रै सामीं ही। जिकी पढेसरियां रै कंवळै मन-मगज मांय सरलता-सहजता सूं उतर सकै ही। म्हारै मुजब अठै कथा-बुणगट री रींड अर बाजारवादी हाकै री डरपाऊ संभावना कहाणीकार श्री आलोक अर संपादक श्री मेहर एकै साथै जाणै ओळख ली ही। अबै बाजारवाद अर भूमंडलीकरण रो लांपो लाग्यो है पण इण री धमक आपां आगूंच मोहन आलोक री बाप कहाणी रै मारफत बीस बरसां पैली ही सुण ली।
‘बाप’ दांई कहाणी ‘पैंट’ में ई निम्न मध्यम वरग री आर्थिक विडरूपता उजागर हुवै। अठै कवि श्री मोहन आलोक रो क्लर्क रो गीत (कविता) चेतै आयां बिनां कोनी रैवै-
“एक भूख चक्र सी जीयी
तिरस पीयी, जियां ई भूण ज्यूं
घरां सूं नीसरिया सदा कसूण
बड्या जणा रैया केसूण ब्यूं।”
पैंट कहाणी रो कथानायक क्लर्क तो जियां साचाणी ई घर सूं अपसुगना नै लियां ई निसरै। देरी सूं उठै, हडबड-दडबड मांय नहावै। बनियान नीं लाधै तो कणांई काछियो, पछै काच लाधै तो कांगसियो कोनी लाधै। बियां ई ऊंधा-सीधा टुकड़ा गिट’र साइकल उठावै तो पैंचर। पैंचर सुधां ई हवा भर’र भाजै तो आगै एक सिक्सै वाळै सूं एक्सीडेंट। सोचै किन्नै ई हो तो चालै किन्नै ई हो। कळझो हुयोड़ी साइकिल नै ठरडतो दफतर पूगै तो कोई सुवागत समिति रै अध्यक्ष दांई बड़ो बाबू सुवागत खातर तैयार लाधै। छेकड़ मांय जाणै धन री मार सूं दब्यै पूरै वरग री मानसिकता उजागर हुवै। देस मांय इण वरग री सोच अठै तांई पूगगी है कै चामड़ी फाट जावैली तो एक दिन ठीक हुय जावैला पण जे गाभा फाट जावै तो कठै सूं आवैला ? आर्थिक हालात इत्ता खराब है कै आपरै डील री चोट करता जेब री चोट भारी लखावै। तकलीफ री आ साव नूंवी व्याख्या है।
क्लर्क वरग री मनगत रो एक दीठाव उण री पैंट रै आसै पासै घूमतो सो आपां कहाणी ‘मरियोड़ी चिड़ी’ में ई देख सकां अठै फरक फगत इत्तो है कै इण मांय कथानायक री पैंट रो नूंवो हुवणो ई मानसिक कलेस रो कारण बण जावै। वो आपरी पैंट री स्यान राखण रा केई कळाप विचारतो कूड़ा नाटक ई करण ढूकै। कहाणी रो क्लर्क अठै जिको है, उण सूं नीं धाप’र निज रै स्तर री दीठ सूं- जिको नीं है उण तांई आफळतो निगै आवै। नूंवी पैंट रै साथै ई बो इण रै नीचै ढेड़ सौ रिपियां रै बूंटा री कल्पना, आपरी हैसियत परबारी करै। आज म्हारो भारतीय समाज एक सांस्कृतिक विलम्बन री हालत मांय जीवै। इण कहाणी रै नायक नै आपां इणी त्रिशंकु स्थिति रो सिकार कह सकां।
मिनख बात बात में आपरी बात सूं बणती खुद री छिब माथै खासो ध्यान देवै। उण खातर लगोलग आ जाणकारी जरूरी हुवै कै लोग उण बाबत कांई सोचै। बो आपरी सान बचावण खातर झूठ बोलै। तद कैवां कै आ बगत रै साथै मूल्यां रै बदळ जावण री आ एक कथा है। ओ बदळाव कित्तो भयानक है कै कहाणी ‘अलसेसन’ में भेड़ियै अर कुत्तै री मिलवां नसल रो अलसेसन कुत्तो एक प्रतीक रूप जद सामीं आवै तो बो धन अर लोभ रै सूत्र में बंधी जूण री पूरी कहाणी आपरै रचाव में खोल देवै। आ कहाणी दायजै री दाझ अर सामंतां रै जुग पछै ठाकरां री ठकराई रा सांतरा पोत चवड़ा करै। आपरै रचाव अर बुणगट रै पाण आ एक याददार कहाणी इण खातर मानीजैला कै इण में जिको तनाव भासा रै मारफत आपां सामीं गूंथीजै बो किणी गाळ का बंदूक री गोळी दांई सीधो काळजै पूगण री ताकत राखै।
मोहन आलोक रै कहाणीकार रो एक घणो महतावू पख आं कहाणियां री भासा है। आं कहाणियां में राजस्थानी घर, परिवार अर समाज रो जिको दीठाव आपां सामीं बोलै बो आपां रै जीवण मूल्यां अर संस्कारां नै पोखण वाळो है। अठै मिनख रै मिनख रूप नै बचावण रा लांठा जतन हुया है। कहाणीकार इण संग्रै री केई कहाणियां में आपरै बांचणियां सूं सीधो संवाद करतो बातपोस दांई हाजिर रैवै पण खासियत आ कै बो कहाणी में हुयां उपरांत ई कहाणी अर बीं रै पात्रां में किणी ढाळै रो मनमरजी रो दखल नीं बल्कि संकेतां रै पाण कहाणी आपरै संसार नै खोलती थकी खुद बोलण ढूकै।
प्रकृति रै कवियां में बिरकाळीजी रो नांव हरावळ गिणिजै। ठीक बिंयां ई कहाणी परंपरा में प्रकृति रै रूप नै ई कथा मांय ढळतो कहाणी ‘रामू काको’ में देख सकां। मेह री उम्मीद में मिनख बादळां नै आंख्यां फाड़-फाड़’र देख तो सकै पण बरसणो बीं रै सारै कठै ? आंधी रै लारै मेह अर मेह रै लारै आंधी री बात लोक में कथीजै पण मेह री आस मांय बैठा लोग कियां आंधी आवण सूं बावळा हुय जाया करै ओ खुलासो कहाणी ‘रामूं काको’ मांय हुवै।
मोहन आलोक री कहाणियां री भासा रै काव्यात्मक हुवण री बात माथै किणी नै कोई एतराज कोनी हुवैला क्यूं कै बै कवि है। कहाणी में किणी दीठाव नै आंख्यां सामीं सबदां सूं साकार कर साचाणी ऊभो करणो कला हुवै। इण कहाणियां में मुंडै बोलतै किणी चितराम दांई ठौड़-ठौड़ दीठाव ई दीठाव मिलै। दीठाव अर दीठाव, दीठावां सूं मनां में उपजण वाळा भावां सूं कहाणियां रचण में कहाणीकार नै सफलता मिली है। सटीक सध्योड़ी काव्यात्मक भासा रै मारफत कहाणी लिखणो घणो अबखो काम हुया करै पण इण कथाकार नै तो जाणै कोई वरदान मिलियोड़ो है कै बां री कहाणियां में बांचणियां इत्ता मगन हुय जावै कै कहाणी कणा पूरी हुय जावै ठाह ई नीं पड़ै। जद ठाह पड़ै तद बा मन में पूरी री पूरी किणी घटना दांई आंख्यां देख्यै साच भेळै रळ जावै। आ अनुभव जातरा आपां नै किणी जूनी कहाणी का लोककथावां दांई कीं सीख कोनी सीखावै पण काळजै नै आकळ-बाकळ जरूर कर देवै। कहाणीकार री खासियत आ है कै मिनखाजूण रै जिण साच नै बै कहाणियां में पोखै बो सांच आपां नै आगूंच ओळखता थकां ई आपरी बुणगट अर भासा रै कारणै साव अबोट लखावै।
छेकड़ श्री आलोक रै कहाणीकार रै बारै में बस इत्तो ई कैयो जाय सकै है कै ऐ नामी कवि री नामी कहाणियां बांच्यां पछै पुखता हुवै कै आप राजस्थानी नै बेजोड़ कहाणियां दी, अबै ई आप नै कहाणियां लिखणी चाइजै। बियां इण संग्रै पछै आप रै कहाणीकार रूप नै कोई कवि रूप सूं इक्कीस ई गिणैला। उम्मीद करूं कै इण कहाणी-संग्रै रो राजस्थानी जगत में स्वागत हुवैला।
नीरज दइया
सूरतगढ़ : 2 अक्टूबर, 2009




अब्दुल वहीद “कमल” रा दोय उपन्यास

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नीरज दइया
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राजस्थानी साहित्य में अब्दुल वहीद “कमल” आपरै दोय उपन्यासां घराणो (1996) अर रूपाळी (2003) रै पाण जिकी कीरत कमाई उण री बात करां तो उपन्यासकार कमल री सगळां सूं लांठी खासियत आ है कै बां आपरै समाज रो जिको सांतरो चितराम सबदां रै मारफत राख्यो बो मुसळमान समाज रै जुदा-जुदा रूप-रंग नै राखतां थकां उण रा मांयला दुख-दरद अर सांच नै राखै। राजस्थानी उपन्यासां में कमल सूं पैला किणी रचनाकार इण दिस इण ढाळै री रचनावां कोनी करी। कीरत रै कारणां में साहित्य अकादेमी रो “घराणो” नै बरस 2001 रो साहित्य अकादेमी पुरस्कार नै ई गिणां सकां पण अब्दुल वहीद “कमल” री चरचा पुरस्कार पछै जिण रूप में हुई उण सूं तो “घराणो” उपन्यास दोय कोड़ी रो है आ घारणा कीं बेसी बणी। जिका राजस्थानी उपन्यास परंपरा री थोड़ी-घणी ई जाणकारी राखै बां नै आगूंच ठाह है कै संजोग रा खेल उपन्यास परंपरा में बात परंपरा सूं हाल तांई साथै-साथै चालै। घराणो में संजोग दर संजोग उण री कथा रै जथारथ नै अळधो बैठावै, पण आ कुबाण तो आपां री उपन्यास परंपरा री खास खासियत है! हैंपी ऐंड री फिल्मां दांई राजस्थानी उपन्यास ई छेकड़ में जावतो-जावातो जूनी सगळी बातां माथै पड़दो न्हाख परो हीरो नै सोरो-सुखी जीवण बगसै। आपां रा उपन्यास हाल तांई बुरै रो बुरो अर भलै रो भलो री जुगा जूनी सीख ई सीखावै!
विगतवार बात करां तो सगळां सूं पैली आपां घराणो अर रूपाळी रै सुरूपोत री कीं ओळ्यां लेवां- “देस री आजादी रै दूसरै दसक री बात !” आ पैली ओळी है घराणो री, मतलब 1947 रै पछै 1957 सूं 1966 तांई री कथा है घराणो ! उपन्यासकार “बात” सबद रो प्रयोग करै तद कोई आ ई कह सकै कै ओ रचनाकार रो आपां री घणी-घणी लांठी बात परंपरा सूं जुड़ परो आ रचना करणी चावै। बिंयां राजस्थानी रा घणासाक उपन्यासकार असल में बात माथै ई काम कर सक्या बै उपन्यास विधा री आधुनिकता नै कम ई पकड़ पाया है। जिंयां सुभ कामां में गणेसजी रो सिमरण जरूरी हुवै बिंयां ई आपां “बात” रो सिमरण ई कर सकां ? ओ जरूरी है नींतर आपां री बातां नै उपन्यास अर कहाणी सूं विजोग भुगतणो पड़ैला। इण बात नै छोड़ा अर बिंयां ई पैली ओळी खातर इत्तो सोच ठीक कोनी, ओ उपन्यास है आगै री ओळ्यां दखलै रूप आप रै सामीं राखणी चावूं- “सौ-डैढसौ घरां रो एक छोटो-सो गांव होदां। गांव में दस-बारह घर मुसळमानां रा, कीं घर मेघवाळां अर नायकां रा, बाकी जाट, बामण, खाती, नाई अर बीजै लोगां रा।”
आप सूं माफी चावूं कै दोय ओळ्यां पछै भळै कीं सवाल है- 100-150 घरां मांय सूं 10-12 घर मुसळमानां रा किंयां घटावूं ? क्यूं कै बाकी घर जाट बामण, खाती, नाई अर बीजै लोगां रा है। हे भगवान! म्हैं इण ढाळै री गणित में क्यूं उळझग्यो ?
चालो आपां चौथी ओळी सूं मूळ पाठ पाछो देखां- “गांव में एक कच्चो-पक्को-सो ठाकुरजी रो मिंदर। मिंदर सूं थोड़ी दूरी माथै कच्ची ईंटां सूं बण्योड़ी मस्जिद। साठ हाथ ऊंडो, मीठै पाणी रो एक कूवो। कूवै सूं थोड़ो अळघो पीपळ रो जूनो रूंख।”
तो सा रामजी भला दिन देवै ठाकुरजी रो मिंदर कच्चो-पक्को-सो अर कच्ची ईंटां सूं बण्योड़ी मस्जिद रै गांव होदां में हिंदू-मुसळमान रळ-मिल परा रैवतां। अठै मिंदर कच्चो-पक्को-सो अर कच्ची ईंटां सूं बण्योड़ी मस्जिद बाबत आप खुद ई फैसलो करो कै गांव होदां रै रूप माथै आप कितरा मोहित हुया अर उपन्यासकार री भासा अर बुणगट माथै कांई इत्तो बेगो कोई फैसलो ले लेवोला ? अरज है थोड़ा थमो-थमो होदां गांव में मीठै पाणी रो कूवो साठ हाथ ऊंडो है। आप नै गळतफहमी है डूबण रो कोनी कैवूं आप तो पाणी पीवो अर पीपळ रै जूनै रूंख री छींयां में बिसाई खावो।
आपां रूपाळी रै सुरूपोत री कीं ओळ्यां ई लेवां- “आथूणै-उतरादै थार राजस्थान रा दो छोटा-छोटा गांव रूपवास अर भदवास। दोनां बिचाळै नौ-दस कोस रो आंतरो।” आं ओळ्यां में आपां देख सकां उपन्यासकार आपरै सुभाव मुजब आंतरो दोनां बिचाळै नौ-दस कोस रो बातावै, मतलब तीन किलोमीटर री आ छूट घराणो पछै रूपाळी रै प्रकासन रै आंतरै सात-आठ बरसां में ई सुधार कोनी सकी। आगै लिखै- “दोनूं ठैठूं गांव जैड़ा गांव। भदरवास में दस-बीसक घर मुसळमानां रा। रूपवास जाटां अर बामणां रो गांव जिण में हुसैनखां री एक गुवाड़ी, जिकी पीढ्यां सूं उठै ई खेती-बाड़ी रो काम करै। दूजी गवाड़ी मुसळमान तेल्यां री, जिण रो तेल काढणै रो धंधो पुस्तैनी हो। इणां रै ऐडै-टाकणै अर गमी रै मौकै-टोकै इणां री बिरादरी रा लोग आय’र सामळ हुवै अर सुधारो करै।” दस-बीसक घर मुसळमानां रा गांव भदरवास में अर रूपवास में फगत दो घर मुसळमानां रा ? कदास अठै ई उपन्यासकार दो-चार घर रूपवास में मुसळमानां रा लिखतो तो मेळ सजतो क्यूं कै भदरवास में दस-बीसक घर मुसळमानां रा है। दस अर बीस में दस रो आंतरो है पण आ बात अठै ई छोड़ा पण फेर ई कैवणो पड़सी रामजी भला दिन देवै बिरादरी रा लोग एक गांव सूं आय’र दूजै गांव में सामळ हुवै अर सुधारो करै नीतर सामळ हुयर कोई बिगाड़ो ई कर सकै अर मजै री बात आ कै रूपाळी उपन्यास रै इण गांवां में उपन्यासकार अठै कैयो तो एक दूसरै रै सुधारै खातर पण असल में उपन्यास में हुयो बिगाड़ो है। फेर सुघारै री बात उपन्यासकार आगूंच क्यूं कथै आ बात समझ में कोनी आवै ?
भासा बाबत इण चरचा में घराणो उपन्यास रो जिको अंस आप बांच्यो ठीक उण सूं आगै री ओळ्यां भळै दाखलै रूप बांचो- “पूरै गांव में जीवणजी, छोगजी अर लालजी रा घर पक्कै घरां में गिणीजै। ऐ तीनूं घर ठाकरां री कोटड़ियां कहलावै। आं तीनूं कोटड़ियां में कच्ची ईंटां री साळां अर पक्की ईंटां सूं बण्योड़ी पिरोळां है। गांव रै बाकी लोगां रा घर घास-फूस रै झूंपड़ा अर छानां सूं बण्योड़ा है। जद सूं ओ गांव बस्यो है, तद सूं इण नै अजूं ताईं सड़कां सूं नीं जोड़ीज्यो है।”
जीवणजी, छोगजी अर लालजी रा घर पक्कै घरां में गिणीजै पण कच्ची ईंटां री साळां अर पक्की ईंटां सूं बण्योड़ी पिरोळां री इण कोटड़ियां खातर उपन्यासकार जिण ढाळै ठाकुरजी रै मिंदर बाबत लिखतां थकां लिख्यो- “एक कच्चो-पक्को-सो ठाकुरजी रो मिंदर……कच्ची ईंटां सूं बण्योड़ी मस्जिद।” तो गांव रा ठाकरां री कोटड़िया कच्ची-पक्की नीं पूरै गांव में पक्कै घरां में क्यूं गिणीजै ? गांव रै बाकी लोगां रा घर घास-फूस रै झूंपड़ा अर छानां सूं बण्योड़ा हा तो कांई फगत कच्ची ईंटां उण बगत मस्जिद खातर ही बणाईजती ही का कठैई मिलती ही ? आपां नै चेतै है कै उपन्यासकार घराणो में जिण होदां गांव री बात करै उण में 100-150 घर कैया हा। जद सूं ओ गांव बस्यो है, तद सूं इण नै अजूं ताईं सड़कां सूं नीं जोड़ीज्यो है। उपन्यासकार री आ टीप एक दरद रो बखाण है कै देखो आ हालत है देस रै गरीब गांवां री !
उपन्यास रै पाठ माथै इण ढाळै री चरचा घराणो अर रूपाळी बाबत नीं होय सकै, क्यूं कै उपन्यासकार सटीक अर सध्योड़ी भासा री मांग हरेक जागां पूरी कोनी करै। तद आपां नै ओ समझ जावणो चाइजै कै अठै देस काल अर वातावरण रै बखाण खातर जिण चतराई आळी भासा री दरकार हुवै बा अब्दुल वहीद “कमल” रा दोनूं उपन्यासां में कठैई मिलै तो कठै आपां नै निरास ई होवणो पड़ै। घराणो रा उपन्यासकार कवितावां ई लिखी है तो आपां नै काव्यात्मक गद्य रा दरसण ई घराणो में हुवै। जिंयां दाखलै सारूं पेज-11 रै इण अंस नै भासा री काव्यात्मकता पेटै गिणां सकां- “मांझळ रात ही। तारां छायी चूनड़ी-सो आभो आपरी छक जवानी माथै हो। स्यांत समुंदर-सो गहरी नींद में सूत्यो सगळो गांव। बाळू रेत रै धोरां सूं चौफेरो घिरियोड़ो ओ गांव अर गांव रै च्यारूंमेर पसरियोड़ो सागीड़ो सरणाटो, जाणै ओ सरणाटो सगळै गांव नै आपरी गोदी मांय सांवट राख्यो हो।” भासा बाबत एक बीजी घणी सरावणजोग बात आ है कै आं उपन्यासां में मुसळमान समाज री जिण राजस्थानी भासा रो एक खरो-खरी रूप आपां सामीं आवै बो आपरै जथारथ रै कारण असरदार है। भासा में सामाजिक रूप-रंग नै राखतां थकां उण रा मांयला दुख-दरद अर सांच नै जिण रूप में लेखक चवड़ै करै बो उपन्यास परंपरा में सदीव यादगार रैवैला।
घराणो में “म्हारा दो आखर” में उपन्यासकार री टीप तीन पानां में छपी है! लेखक रा दो आखर अर कबीर रा ढाई आखर बरोबर हुया करै। कबीर आपां नै ढाई आखर में पंडित बणा देवै, तो लेखक आगूंच दो आखर में रचना रा सगळा पोत चवड़ै कर देवै। पंडित बण्यां पछै कुण पढै आखरां नै अर राजस्थानी में लेखक रा दो आखर पढ्यां पछै भलाई कोई भलो मिनख पोथी पूरी बांचण री गुस्ताखी करै तो बीं री मरजी पण आपणै अठै स्याणा-समझणा पाठक अर लेखक तो आ गळती करै कोनी। इण रो एक कारण ओ पण है कै पोथी खातर स्याणा-समझणा पाठक अर लेखक रोकड़ा खरच करै तो पीड़ हुवै ! ओ विषयांतर अठै ई निवेड़ूं।
आगूंच दो आखर में उपन्यासकार लिखै- “म्हैं इण उपन्यास में आ कैवण री चेष्टा करी है कै ‘घराणो’ बेटी रै नांव सूं, बेटी रै सुभाव सूं, बेटी रै बरताव सूं अर बेटी रै चाल-चलन सूं ओळखीजै।” तो सा ओ मूळ मंतर है जिको इण रचाव रो सार है। एक समाज रै सांच नै लेखक इण ढालै प्रगटै- “बेटी नै जलमतै ई गळो घोट’र, का अमल देय’र मारणै री रीत इण घराणै में लारली चार-पांच पीढियां सूं चाल रैयी है। इणां रो ओ मानणो है कै बेटी तो भाग-फूट्यां रै हुवै है।” (पेज-17)
घराणो मुसळमान दाई हमीदा री कीरत नै बखाणै । उपन्यास एक छोरै री आस में गळती सूं जलमी छोरी रै प्राणां री अंवेर रै मिस सवाल उठावै पण उण नै जिण रूप में विगसावै बो सहज कोनी। असहज कथा ई कथा रो आधार होया करै पण असहज नै लेखक सहज रै रूप में प्रगटै आ लेखक री करामात मानीजै। विचार में आ बुणगट कै हिंदू-मुसळमान एक है- हमीदा रो हीराबाई रै रूप में बदळाव प्रभावित करै अर ठाकर धनजी अर जीवणजी रो आंतरो मिनख-मिनख रै विचारां रै आंतरै नै दरसावै। धनजी बेटी खातर झुरै तो जीवणजी बेटै खातर। एक ई बगत में दोय का दोय सूं बेसी पण विचारधारावां समाज में होय सकै। घराणो में मां पारो री बा छोरी लाडो है जिकी मरदाना भेस में घोड़ै पर चढ्योड़ी एकली ई डाकुवां सूं मुकाबलो करै अर सगळै गांव नै अचरज हुवै हमीदा अर लाडो माथै। आ कथा हमीदा छेकड़ में सुणावै कै जीवणजी बाबोसा ! आ बा ई बेटी है जिकी रै प्राणां रा थे प्यासा हा। उपन्साकारजी जीवणजी नै छेकड़ तांई जीवता राख्या, कारण बां नै हमीदा सूं आ कथा सुणणी ही अर अबै जीवणजी नै पछतावो करणो है- हमीदा री कबर माथै।
उपन्यास रो दी ऐंड रो अंस बांचण सूं आपां नै सुख, सोरप अर निरायती मिलै- “जद हमीदा रै त्याग अर पारो रै धीरज अर सबर री बातां असवाड़ै-पसवाड़ै रै गांवां ताईं पूगी तो लोग-बाग उठै थोड़ै दिनां मांय एकै कानी पारो रो मिंदर अर एकै कानी हमीदा री कबर पक्की बणा’र उणां री पूजा अर मानता करणनै लाग्या।
जीवणजी रोज उठै आवतो अर अरड़ावतो कै ‘म्हैं पापी हूं………म्हैं जुलमी हूं ……म्हनै माफ करदै पारो… म्हनै माफ करदै हमीदा……।’
बो पारो रै मिंदर रै पगोथियां सूं अर हमीदा री कबर सूं रोज माथो फोड़तो-फोड़तो नीं जाणै कद इण संसार सूं चल बस्यो ?” (पेज-111) दी ऐंड।
इण समापन में मिंदर बाबत उपन्यासकार बतायो कोनी कै मिंदर कच्चो-पक्को-सो ठाकुरजी रै मिंदर दांई हो का कच्ची ईंटां सूं बण्योड़ी मस्जिद दांई कच्चो। पण अबै हमीदा री कबर पक्की बणावण री बात साथै ई आ बात उठै कै गांवाआळा मस्जिदं णाई कांई पक्की बणाई का कच्ची सूं ई काम चलावै ? कांई किणी कीरत री थरपणा सारू मंदिर अर कबर बणावणी जरूरी हुया करै ? जीवणजी नै जिकी बात उपन्यास रै छेकड़ में समझ आई बा बात कै बेटो अर बेटी नै बरोबर मानो, हाल ई आपां रै समाज नै समझणी बाकी है। केई तो अबै समझग्या पण केई समझतां थकां ई अणसमझ बण्या बैठा है बां रो कांई करां।
रूपाळी अर घराणो दोनू ई नायिका प्रधान उपन्यास है। घराणो बरस 1957 सूं 1966 तांई रै बगत नै आधार बणावै तो रूपाळी में बरस 1965 अर 1971 रै भारत-पाकिस्तान रै जुद्ध रै ऐनाणां नै घर रै ऐन बीचाळै ऊभा होय समझण रा जतन उपन्यास रै मारफत हुया है। जुद्ध रै मांयला-बारला नफा-नुकसाणां री विगतां में केई विगतां अछूती रैय जावै। बां री संभाळ रचनाकार ई कर सकै, अर एक संभाळ नै आपां उपन्यास रूपाळी में देख सकां। रूपाळी में हिंदू-मुसळमान एकता अर सद्भाव नै जठै सुर मिल्या है बठै ई मिनखबायरै घर में किणी लुगाई अर उण रै टाबरां नै हुवण आळी तकलीफां रो लेखो-जोखो उणां री निजू जूझ रै साथै पूरी ईमानदारी सूं सामीं राखीज्यो है। उपन्यास घराणो में लेखक आपरी बात तीन पानां में आगूंच “म्हारा दो आखर” रै मिस कैवै तो दूजै उपन्यास रूपाळी में कबीर स्टाइल में लेखक आपरी बात “म्हारा ढाई आखर” रै मिस बात फगत एक पानै में कैवै ! फगत आधो आखर बध्यां सूं दो पानां कमती किंयां हुय जावै ? तीन पानां सूं एक पानै री आ जातरा का समझ, समझ में कोनी आवै।
आगूंच ढाई आखर में उपन्यासकार कमल लिख्यो है- “उपन्यास में म्हैं आ कैवण री चेष्टा करी है कै जकी लुगाई, लोक लाज सूं ,लुगाईजात री मर्यादा सूं आज तक घुट-घुट’र मरती रेयी है। अबै बा समाज री कुरीत्यां अर लोक री अनीत्यां सूं जुड़ै थका जुलमां अर अणकथ कष्टा नै भोगण नै त्यार नीं है। चावै बा रूपाळी (जमाली) हो का राधा। क्यूं कै लुगाई जात लुगाई है। लुगाई रो धर्म लुगाई है। उपन्यास री नायिका रूपाळी रो चरित्र एक ऐड़ो ई चरित्र है।”
कांई लेखक रै आं ढाई आखरां सूं लियोड़ा थोड़ा-सा आखरां सू आप नै थोड़ी-घणी लेखक री चेष्टा समझ में आई का कोनी आई ? पैला दांई ओ भळै विषयांतर ई हुवैला सो इण बात माथै अठै ई विराम देवतां थकां दूजी भली बात करूं। लुगाई जात रो समाज री जूनी मानता, परंपरा, रिवाज का अणचाइजती बात माथै सामीं ऊभो हुवणो, अर गळत रै विरोध में हरफ काढणो किणी आधुनिक रचना में सरावणाजोग ई हुया करै। स्त्रीवाद जैड़ी चरचा राजस्थानी में कोनी पण उपन्यास रूपाळी रै मारफत जे लेखक राजस्थानी समाज री किणी लुगाई रै इण नुंवै रूप री ओळखाण आपां नै करावै तो उण री सरावणा हुवणी चाइजै। अठै आ ओळी लिखतां रूपाळी री पुरजोर सरावणा करतां थका उपन्यास बांचण री बात घणै संकै साथै आप तांई पूगावणी चावूं।
उपन्यास-जातरा में रूपाळी उपन्यास रो खास उल्लेख इण खातर करियो जावैला कै इण में उपन्यासकार हिंदू-मुसळमान एकता अर बां री आपसरी री प्रीत रा केई अनूठा चितराम मांड्या है। बिंयां घणै गौर सूं रूपाळी री कथा माथै विचार करां तो आ एक प्रेम-कथा है- जिण में रूपाळी री प्रेमकथा रै साथै-साथै उण री मां जुबैदा री आपरै घरघणी रै लारै प्रेम अर विरह री कथा आधार रूप गूंथीजी है। सगाळा सूं सिरै बात हा है कै जुबैदा आपरै घराअळै जमालखां (जगमाल) अर छोरी जमाली (रूपाळी) रै सुख-दुख में बंधी राजस्थानी उपन्यासां में जीवटआळी यादगार नायिका रै रूप में आपां सामीं ऊभी होई है। उपन्यास में मुसळमानां रो ठेठ भारतीयकरण जिण नै कोई हिंदूवाद का हिंदूकरण ई मान सकै। लेखक जमाली रो नांव ई रूपाळी अर जमाल खां रो जगमाल बरतै। आं चरित्रां में लेखक रो मकसद हिंदूवाद नीं एक गांव री भारतीयता रो रंग उजागर करण रो रैयो हुवैला। आपां उपन्यास में भारत-पाकिस्तान रै जुद्धां अर भारत री फौजां बाबत हुई बंतळ रै इण दीठाव नै प्रमाण सरूप राख सकां- ओ घणो संजीदा मसलो है पण लेखक री हिम्मत दाद देवण आळी है।
“गोविंदो बोल्यो, “यार, खाली कश्मीर ई क्यूं………आज जिको पाकिस्तान है, बो भी तो भारत ई हो………आज ओ पाकिस्तान जिण कश्मीर रै बारै में फागड़दापणो कर रैयो है………अर इण नै लेवण नै धूड़ सूं मुट्ठियां भर रैयो है……इण री कुबुध नै आखो जग देख रैयो है।”
जस्सो बोल्यो, “तो दादा, पाकिस्तान नै इतरो हराम रो धन क्यूं भावै है ? सुण्यो है कै मुसळमान धरम में तो हराम रो धन लेणो मना है ?” (पेज-11)
रूपाळी रै रचनाकार रो ओ गुण है का ओगुण कै बो आपरै पाठकां नै मुसळमान धरम री केई-केई मरम अर धरम री बातां किणी कथावाचक दांई बिचाळै समझाण ढूकै। अठै आ ध्यान देवण री बात है कै उपन्यासकार नै केई जागावां कथावाचक री ठौड़ उपन्यास में किणी नाटककार रै रूप में पण हुवणो बेसी असरदार साबित हुया करै, जरूत-जरूत री बात हुवै। इण बात रै पख में दाखलै रूप एक अंस लेवां- “मुसळमान धरम मांय मरियोड़ै का मरियोड़ै रा समाचार सुण्यां पछै उण रै लारै तीन टेम पछै कुल री फातिहा दिरवावै। कुल री फातिहा में एक-एक चिणै माथै आयोड़ो मौलवी अर बीजा लोग कुल पढै। जगती अगरबत्ती री बांस उठै खिंडती रैवै। मखाणा अर कुल पढीज्योड़ा चिणा उठै आयोड़ा लोगां मांय बांट दैवै। इण धरम रो मानणो है कै इण सूं मरण वाळै री आत्मा नै शांति मिळै है।” (पेज-17)
उपन्यासकार अठै पाठक रो बेसी हित सोचण में उपन्यास कला री दीठ में मोळो पड़ जावै, इण खातर म्हैं आगूंच लिख्यो कै ओ गुण है का ओगुण ? घर री केई-केई बातां पड़दै में रैवै जित्तै तो ठीक, पण घर री केई बातां- नीं तो कैवतां बणै अर नीं ई लुकोवता बणै। तद कोई कांई कारै ? आ मनगत भोगणी घणी अबखी हुवै। आ अबखी मनगत भोगै रूपाळी री मां जुबैदा। खसम तो फौज में गयो जिको पाछो आयो कोनी अर जेठ गफूरो माड़ी नीयत सूं आपरै घर-परिवार री मरजाद ई भूलण री गळती करै, पण सतवंती जुबैदा आपरो सत ठेठ तांई सांभियां राखै। जुबैदा एक आस में बंधी आपरी छोरी नै देख-देख’र जीवै कै कदास तो खुदा उण माथै रहम करैला अर उणां सगळां री खबर ई लेवैला जिकां उण रै दुखां नै दूणा करण में लाग्योड़ा है। जद घर रा ई बैरी हुय जावै तो जीवण में कांई भदरक हुवै ? जेठ गफूरै री चालां अर चालां में बारंबार मात रै अगाड़ी ऊभी जुबैदा जिंयां-किंयां कर बारंबार पार पूगै पण कद तांई ? जुबैदा रो खसम फौज में किणी जुद्ध में जिंयां जूझै उणी ढाळै जुबैदा घर में ई जूझै, तो जूझ किण री मोटी ? जुबैदा रै सुख अर दुख री केई कथावां उपन्यास में मिलै साथै ई उपन्यास में राजियै अर रूपाळी री प्रीत री कथा ई अनोखी है।
अठै पैलै उपन्यास घराणै दांई संजोग दर संजोग तो है पण आं संजोगां बिच्चै जिकी जूझ रो चितराम सामीं आयो है बो घणै मरम आळो है। उपन्यासकार रूपाळी री प्रेम कथा नै असफल नीं दिखा परो सफल बणावण रै चक्कर में फिल्मी हुय जावै। घराणो दांई हैप्पी ऐंड खातर उपन्यासकार रूपाळी में कांई-कांई नीं कर जावै। लोककथा रा गुण उपन्यास रा दोस हुय जावै, बै दोस लारो कोनी छोड़ै।
“पांच-सात दिनां पछै भदवास सूं समाचार आया कै लोकलाज सूं डर’र आपरी आत्मा रै पछतावै रै कारण गफूरो कुवै में पड़’र मरग्यो। इण समाचार सूं सगळां नै थोड़ो-घणो दुख हुयो।” (पेज-165)
हेताळुवां सुणो ! बो कुवो साठ हाथ ऊंडो, मीठै पाणी रो एक कूवो नीं हो। अर ना कूवै सूं थोड़ो अळघो पीपळ रो जूनो रूंख हो। क्यूं कै बो तो होदां गांव घराणो उपन्यास में हो। पांच-सात दिनां पछै पूग्यै समाचार सूं सगळां नै थोड़ो-घणो दुख पांच-सात दिन तांई ई हुयो हुवैला ! कदास कोई सोचतो कै करमफूटो गफूरियो साळो मरियो अर पापो कटियो, धरती सूं कीं बोझ हळको हुयो ! जद एक आदमी रै मरिया धरती रो बोझ हळको हुवण री बात करां, तद आपांणी गणित सावळ हुवणी चाइजै। समाचार का तो पांच दिन में पूगणा चाइजै का सात दिन में अर दुख खातर ई सागण बात- का तो दुख थोड़ो हुवणो चाइजै का घणो हुवणो चाइजै। राजस्थानी में थोड़ो-घणो रो अरथ मीडियम तो हुवै कोनी ? इण रो ओ अरथ तो हरगिज ई कोनी हो सकै कै गांव आळा नै बां री सरधा सारू डील-डौल नै देखता थकां किणी नै थोड़ो अर किणी नै घणो दुख हुयो हुवै ! आ सगळी बातां रै होवता थकां पण सार रूप आपां कह सकां उपन्यास परंपरा नै पोखण पैटै कमलजी रा दोनूं उपन्यास आपरी कथा-जमीन सारू घणा महतावूं मानीजैला।
[अब्दुल वहीद “कमल” जलम : 17 अप्रैल, 1936 ; इंतकाल : 6 मार्च, 2006 ]
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नीरज दइया
द्वारा- सूरतगढ़ टाइम्स (पाक्षिक) पुराना बाजार बस स्टैंड सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर)

Wednesday, August 26, 2009

राजस्थानी कविता रा साठ बरस

नीरज दइया,
पी।जी।टी. (हिन्दी), केन्द्रीय विद्यालय, क्रमाक- १, वायुसेना, सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर)Mobil : 9461375668 E-mail : wpnegchar@gmail.com & www.wpnegchar.blogspot.com

(राजस्थली रै १००वें अंक में प्रकाशित आलेख)

भासा री खिमता नै
तोलण री ताकड़ी है कविता
सबदां रै भारै में
चन्नण री लाकड़ी है कविता
(कवि : कन्हैयालाल सेठिया)

आजादी पछै री कविता बाबत बात करतां थकां आज तांई रै काल खंड नै गिणां तो ओ आकड़ो साठ बरसां सूं उपर ई बैठै अर इण साठ बरसां री कविता मांय इत्ता कवियां आपरो योगदान दियो है कै फगत नांवां रै दाखलै रूप ई आपां साठ पानां में बांरां नांव ई लिखां तो ई केई नांव छूटण री गुंजाईस रैय जावैला अर कवियां री कवितावां रा कीं थोड़ा-घणा नमूना गिणांवण री खेचळ करां तो पानां छव सौ ई कम पड़ैला, इण गत नै जाणता थकां आगूंच बां सगळा कवियां सूं माफी चावूंला जिणां बाबत अठै म्हैं म्हारी सींव रै कारण कीं नीं लिख सक्यो हूं । कविता में बियां तो छंद-मुगत कविता सूं पैली डिंगळ री धारा रा केई-केई खाळा ई आवै अर गीत- गजल री बात बिना कविता री बात ई आधी-अधूरी लखावै पण अठै कविता सूं म्हारो मतलब राजस्थानी री नुवीं कविता सूं है जिण री विधिवत थरपणा ‘तार-सप्तक’ री तरज माथै ‘राजस्थानी- एक’ रै मारफत कवि तेजसिंह जोधा करी । अठै ओ खुलासो ई जरूरी लखावै कै छंद-मुगत कविता ई नुवीं कविता कोनी हुवै, छंद में रैवता थका ई कोई कविता अधुनिक नै नुवीं होय सकै है पण असल बात कविता में दीठ अर अप्रोच री हुया करै । सबदां रै भारै में चन्नण री लाकड़ी है कविता अर कोई नै जे जुखाम हुवै का सोजी कीं कमती हुवै तो कांई कर सकै है कविता !


अदभुत ही ओप थारै अंगां री
तो ई लाधै कोनी गमिया पछै
इण अंधरीज्योड़ा बजार में
म्हैं थनै हेला पाड़ू
सायत पिछांण लै थू म्हारो सुर
(कवि : सत्यप्रकाश जोशी)

कविता में मूळ बात सुर री ही हुया करै कै किण कवि अर कविता रो सुर नुवीं कविता नै लगोलग आगै बधावण रो काम करियो पण नुवीं कविता री बात जूनी कविता परंपरा नै जाण्या बिना कोनी होय सकै । हरेक नुंवी चीज रो आधार जूनी चीज में ई मिल्या करै है, ठीक बिंयां ई कविता एक चीज है ! तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त रै दौर में आपां इक्कीसवीं सदी में हा आ बात याद राखणी घणी जरूरी है । डिंगळ नै आज रै जुग में आपां सजावट रै समान में तो धर सका पण बै मूंछां अर तलवारां अबै आपरै ठौड़ ठिकाणै ई राख दां तो ई ठीक है, क्यूं कै कविता खातर एक भासा अर सुर री दरकार हुया करै अर बगत परवाण भासा अर सुर बदळियां ई सरै । बै उपमावां अर छंदां री मनमोवणी छटावां, वाह ! वयण सगाई रो कांई कैवणो । सब आपरी जागां ठीक हा अर बां रै जस नै ई आपां कोनी भूल सकां पण अबै बस करो- थमो-थमो । कविता नै प्रवृतिगत देखां तो केई धारावां दीसैला जिण में नुवीं कविता पण एक काव्य धारा ई है पण बरस १९७१ सूं पैली अर आज ई केई कवि राजस्थानी कविता रै नांव माथै उणी जूनी मनगत अर भासा नै अंवेरतां थका दर ई संको कोनी करै । कैवणो तो नहीं चाइजै पण कैवणो पड़ै कै आज री आधुनिक कविता कठै पूगगी है इण री बानै थोड़ी-घणी तो खबर कवियां नै राखणी लाजमी है । नुवीं कविता पेटै देखां तो राजस्थानी में कविता रो दायरो अर दीठ भारतीय स्तर तांई पूगावण में अनूदित काव्य पोथियां री महतावूं भूमिका मानी जाय सकै । आधुनिक भारतीय कविता सूं राजस्थानी री ओळख करावण में सिरै चन्द्रप्रकाश देवळ नै तो आपा जे उल्था-मसीन ई कैवां तो बेजा बात कोनी हुवैला, क्यूं कै देवळ अनुवाद रै पाण राजस्थानी कविता री गाढी ओळख केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, रमाकांत रथ, हरभजन सिंह, सितांसु यश्चन्द्र, सुभाष मुखोपाध्याय, सीताकांत महापात्र आद कवियां सू करवाई है । इण पख नै पोखणवाळा केई बीजा रचनाकार ई है जियां- नंद भारद्वाज, श्याम महर्षि, विनोद सोमानी ‘हंस’, उपेन्द्र अणु, नीरज दइया आद-आद ।


जोयेड़ी जोत रौ कांई जोणौ है
होवतै काम रओ कांई तो होणौ है
अणु नै उधेड़णौ सोरौ है
पण मिनख नै समझावणौ दोरौ है ।
(कवि : नारायणसिंह भाटी)

तो साठ बरसां री राजस्थानी कविता नै समझण रो अबखो काम कविता री कहाणी कथ परा पूरो करां । कहाणी री ई तरज माथै चालू करां- वन्स अपोन ए टाईम.... एक बार री बात है मतलब कै जूनी बात है । अबै बात बा कोनी रैयी तो सा ‘बादळी’१९४२ अर ‘लू’ रै मारफत कवि चन्द्रसिंह बिरकाळी (१९१२-१९९२) नै प्रकृति-काव्य रै कालजयी-कवि मानण रो बो जुग मंचयी कविता रो जुग हो अर उण में केई-केई कवि सैनाणी हा पण दूहा छंद रा मासटरपीस बिरकाळी री पोथी ‘बाळसाद" नै उणरो पूरो-पूरो हक देवण में राजस्थानी री आधुनिक कविता कठैई न कठैई चूकगी है । ‘बाळसाद’ (१९६८) अर ‘काळजै री कोर" (१९६८) आधुनिक राजस्थानी कविता री पैलड़ी पांत री काव्य-पोथियां है । अठै आपां बिरकाळी री दीठ अर कविता नै लेय’र निजू अप्रोच में साव नुवो रूप देख सका । ‘लोरी’ कविता में कवि कवि री ओळ्यां है- "जाग जाग लाडेसर जाग ! मां रो काज संवारण जाग ।" बिंयां लोरी तो जगावण खतर कोनी हुवै, तो कवि मां रो काज संवारण खातर लाडेसर नै जगावण रा जतन क्यूं करै ? इणी गत नै घणा घणा पछै कवि सत्यप्रकाश जोशी ‘राधा’ (१९६०) में जुद्ध खातर लड़जा भिड़ जा सूं जुदा सुर में कान्हा सूं कैवायो कै "मन रा मीत कांन्हा रे- ........मुड़जा, फौजा नै पाछी मोड़लै" । जूनी मनगत सूं जुदा नुवीं बात पैली पैल तो गळै कोनी उतरै पण मंचिय कवितावां री धूमधाम बरस १९६० तांई खासा रैयी अर राजस्थानी में किणी कवि कोई संजीदा कविता कोनी लिखी । ‘कळायण’१९४९ रा चावा ठावा कवि नानूराम संस्कर्ता री पोथी ‘समय रो बायरो’ बरस १९५३ में छपी पण उण में जीवण-जथारथ रो पूरो-पूरो खुलासो तो कोनीं मिलै । बिरकाळी अर संस्कर्ता रै मारफत आपां आगै री कविता जिण नै नुवीं कविता कैवां री जातरा अर उण रा बदळावां री कहाणी नै समझ सकां ।


रुको, थोड़ा ठेरौ
थांरै पगां में पड़ी है
बिखरयोड़ी म्हारी भासा
कीं सबद चुगण दो म्हनै
वांरै तूट-भाग अर
घिसीजण सूं पैली
म्हनै कविता लिखणी है ।
(कवि : पारस अरोड़ा)

कविता लिखणो कला है अर कविता में कवि गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’ (१९०७-१९६५) टाळ किणी बीजै कवि रै नांव सूं आधुनिक कविता री बात कोनी होय सकै । उस्ताद री कविता राजस्थानी में आधुनिक कविता री सबळी बानगी मानी जावै । उस्ताद रो आजादी पछै आजादी सूं मोहभंग हुयो इण बात नै आपां दूजै सबदां में कैवां तो आजादी रो सुख फगत सपनै रो सुख बणग्यो- " इण दिस सुख री पड़ी न झांई, राज बदळगयौ म्हांनै कांई" अर "लोग कवै सूरज ऊगौ, पण कठै गयौ परकास / हाथ हाथ नै खांवण दोड़ै, किण री राखां आस ? मुलक री आ कैड़ी आजादी...." । जठै उस्ताद री कविता समाज री हकीगत बयान करण री कविता ही तो बठै ई चंद्रसिंह बिरकाळी री कविता समाज रै चौफेर पररियै वातावरण रै विविध रंगां नै बखणती कविता ही । रंग-रूप री पकड़ में उस्ताद जठै चूक जावै वठै कवि बिरकाळी आपरी कलम री करामत दिखावै पण आजादी पाछलै बीस-पच्चीस बरसां तांई री सगळी रचनावां में आज रै दिन देख्यां आपानै कविता रो पूरण पुरुस कवि कन्हैयालाल सेठिया टाळ कोई दूजो नीं लखावै ।


सूंसाड़ा भरती
मझ दोपेरी बेळां में
तू उड़ीकै है
उण री पायल री
झणकार रौ
मदरो-मुदरो सुर !
टूटा रमतिया में
बचपण कितरा दिन
बंध सकै है
बावळा ?
(कवि : भगवतीलाल व्यास)

तूट्योड़ा रमतिया में जिण ढाळै बचपन नै कोनी बांध सका बियां ई पचपन-छप्पन का साठ बरसां री कविता जातरा में खासो कीं छोड़णो लाजमी है क्यूं कै छुट-पुट रूप में आपरी न्यारी-न्यारी कवितावां सूं समकालीन जथारथ अर मानवी मूल्यां री नुवीं दीठ नै अंवेर वाळा कवियां रो पूरो रो पूरो अगावू एक जत्थो है। कवि सेठिया मुजब- "गुड़ है गूंगै रो / उठा-पटक रो / अखाड़ो कोनीं कविता / ओखद है आतमांरी / माटी री काया रो / भाड़ो कोनीं कविता" गूंगो किंयां बखाणै कै राजस्थानी री नुवीं कविता किंयां-कांई है ? खराखरी तो आ ई बात है कै साठ बरसां री साठी-पाठी कविता नै तो पूरी बांच्यां ई पूरो पूरो स्वाद आ सकै ।


सांच पूजां म्हे
मिनख री साधनां पूजां
साच नै साकार करती
कल्पना पूजां
सिल्प पूजां
सिल्प उतरी सिरजणा पूजां
म्हे कला रा पारखी
पत्थर कणां पूजां ?
(कवि : मोहन आलोक)

मिनख री साधना री कदर करण वाळा कला पारखी कवियां री पूरी खेप में फगत हरावळ टोप टेन कवियां रा नांव जे आपां टाळां तो दस कवि रा नांव है- कन्हैयालाल सेठिया, सत्यप्रकाश जोशी, नारायणसिंह भाटी, पारस अरोड़ा, भगवतीलाल व्यास, मोहन आलोक, सांवर दइया, चन्द्रप्रकाश देवळ, अर्जुनदेव चारण अर ओम पुरोहित ‘कागद’ ।


कित्ताक दिन रैवैला
तण्यो म्हारो डील-रूंख ?
नितूकी बाजै
अठै अभाव-आंधी
होळै-होळै कुतरै
जड़ा नै जीव
अबै
औ गुमान बिरथा
म्हारी जड़ां
जमीन में कित्ती ऊंडी है !
(कवि : सांवर दइया)


जड़ा जमीन में ऊंडी होया ई आंधी रै थपेड़ा सूं मुकाबलो हुय सकै अर लारला साठ सालां री कविता री जमीन री बात करण खातर आधार ग्रंथ रूप चरचा करां तो कवियां री खुद री छप्योड़ी पोथियां रै अलावा रजस्थानी री पत्र-पत्रिकां रा खास कर नै कविता-विशेषांक आपां गिण सकां । परंपरा रै "हेमांणी" अंक (१९७३) नै कुण भूल सकै है ? बो सिरै संकलन सदीव याद रैसी । केई पत्रिकावां आपरा कविता विशेषांक छाप’र उणी सामग्री नै पोथी रूप ई प्रकाशित करी है जिण में "राजस्थाली" रा संपादक श्याम महर्षि (आठवै दशक री प्रगतिशील कविता, उमस आद) अर "आगूंच" रा संपादक मीठेश निरमोही (आधुनिक राजस्थांनी कवितावां) रा नांव घणा मेहतावूं है ।


म्हैं राजी होय बधावौ उगेरण
गळौ खेंखारियो ई हौ
के औ कांईं
जूना झंड़ा अर कल्दार री जोड़ा-जोड़
म्हांरी भासा ई चलण में नीं रही
खोटे पड़गी
नवै राज नवीं भासा !
जांणै भासा कोई संविधान व्है
जिकय आयै राज पलटीजै ।
(कवि : चन्द्रप्रकाश देवळ)


शिक्षा विभाग राजस्थान री सेवावां ई राजस्थानी रै खातै गुण गावै जिसी है कै आयै बरस पांच सितम्बर नै एक पोथी राजस्थानी गद्य-पद्य संकलन री एक पोथी छापै अर संपादक पलटीजै । राजस्थानी रा कवियां अर लेखकां रै संपादन में छपी शिक्षा विभाग री पोथियां में केई केई उल्लेखजोग रचनाकारां री कवितावां रै साथै साथै कचरो ई घणो छ्प्यो है । इणी खातर म्हैं आगूंच लिख्यो कै फगत नांवां रै दाखलै रूप ई आपां साठ पानां में बांरां नांव नांव ई लिखां तो कमती पड़ै पानां !


अठै सूं ई उडियौ हौ म्हैं
ऐन थांरै पगां कनै सूं ।
थांरी ठोकर
बतायौ आभौ
थे म्हारी जलम-भोम
क्यूं नटौ
बजावण सूं थाळी कांसी री ।
(कवि : अर्जुनदेव चारण)


समूळै काम री अंवेर तो साहित्य रै इतिहास में हुया करै फेर ई आपां संपादित पोथियां में खास उल्लेखजोग आं पांच पोथियां नै तो विगतवार दाखलै रूप लेय ई सकां हा- "राजस्थान के कवि" (१९६१) संपादक- रावत सारस्वत (प्रकाशक- राजस्थानी भाषा साहित्य संगम, बीकानेर), "राजस्थानी काव्य संकलन" (दूजो संस्करण १९९४) संपादक- कल्याणसिंह शेखावत (प्रकाशक- राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर), "आज री राजस्थानी कवितावां" (१९८७) संपादक- हीरालाल माहेश्वरी अर रावत सारस्वत (प्रकाशक- साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली), "आधुनिक राजस्थानी-काव्य" (१९९१) संपादक- रामेश्वरदयाल श्रीमाली (प्रकाशक- साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली) अर "अंवेर" (१९९२) संपादक- पारस अरोड़ा (प्रकाशक- राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर) ।


रूंख नीं
डाळी नीं
पानड़ा नीं
सूळ नीं
नीं छींयां
चिड़कली बापड़ी
बसै कींया ?
(कवि : ओम पुरोहित ‘कागद’)


कवि कागद री इण कविता नै आपां इण ढाळै ई लेय सकां हा कै पत्र-पत्रिकावां कोनी, लेखक-कवि पोथी खुद छापै अर बांटै, पोथी बिकै तो कोनी फेर कविता अर नुवीं कविता रो तो कैवणो ई कांईं ! तो बापड़ी राजस्थानी री नुवीं कविता नै बसावण खातर म्हारा लियोड़ा दस नांव ई उजाड़ करण रै मतै कोनी लियोड़ा । कविता नै बसावणी है अर केई दस नांव दस पछै ई लिया जाय सकै, क्यूं कै दस पछै कोई समूळी बस कोनी । एक बात अथै आ पण विचारां कै आपांनै कठैई नै कठै तो आगै जाय’र बस करणी ई पड़ैला दस, बीस, तीस छेकड़ कित्ता ? किण किण नै टाळां किण नै लेवां ? तो नीरज दइया आद-आद केई कवियां रा नांव पण लिया जाय सकै है जिणां रा केई काव्य संकलन ग्रंथ प्रकाशित हुया है (मतलब एक सूं बेसी दोय कविता पोथियां छप्योड़ी है!) । जिण कवियां री कोई ढंगसर काव्य पोथी ई कोनी छपी बै नांव पण महतावूं होय सकै । महतावू बात है कै राजस्थानी कविता में एक नुवीं धारा अर आंदोलन रूप में बरस १९७१ में पांच कवियां री कवितावां ‘राजस्थानी- एक’ रै मारफत सामीं आई जिकी उण बगत री जरूरत रैयी हुवैला पण बां मांय सू फगत एक पारस अरोड़ा नै टाळ’र बाकी रा चारूं कवि बेगा ई घिसग्या, जियां मणि मधुकर तो जाणै बरस १९७५ रै अकादेमी पुरस्कार खातर ही राजस्थानी में ‘पगफेरो’ करियो हो, तेजसिंह जोधा री फगत एक ‘ओळूं री ओळ्यां’ पोथी ही छ्पी, ओंकार पारीक री काव्य साधना एक सतत कवि रै रूप में नीं रैवण रा केई कारण रैया हुवैला अर गोरधनसिंह शेखावत री ‘किरकर’ १९७१ अर ‘पनजी मारू’ १९८८ छपी पण "खुद सूं खुद री बातां" (जागती जोत में तेजसिंह जोधा रै संपादन में छ्प्योड़ी पोथी रूप बरसां रा बरस बीत्या पछै १९९० में छपी ) रै जबरदस्त कवि री संभावनावां बै लगोलग पूरी नीं कर सक्या । खैर इत्ती खथावळ ई काम री कोनी होय सकै कै पांचै दिन कोई नुवीं विगत सामीं आवै । इण में किणी नै संका कोनी कै कवि कन्हैयाल सेठिया, नारायणसिंह भाटी अर सत्यप्रकाश जोशी री त्रिवेणी आपरी सतत सिरजण जातरा रै पाण रजस्थानी कविता नै आपरी ओळखाण दीवी अर मजबूत आधार दियो । कवि कन्हैयालाल सेठिया(१९११ -२००८) सत्यप्रकाश जोशी ( १९२६-१९९०) अर नारायणसिंह भाटी (१९३०-१९९३) आधुनिक कविता रा पैलड़ा तीन थंबा मान्या जावैला जिणां री कविता सूं ही कविता नै आगै रो आपरो पुखता मारग मिल्यो ।


नुवीं कविता रा टोप टेन कवि


कन्हैयालाल सेठिया

कोनी करिया जा सकै / मिनख री चेतना रा / टुकड़ा / निरथक है / बिन्या संवेदणा / सिरजण री कलपना ! (सांच) संवेदणा रा सजग कवि कन्हैयालाल सेठिया री १४ पोथियां राजस्थानी में छपी । कवियां में सगळा सूं लांबी जतरा करण में अगावू कवि री पोथियां है- रमणियां रा सोरठा (१९४०), मींझर(१९४६) , गळगचिया (१९६०), कूंकूं (१९७०), लीलटांस (१९७५) , धर कूंचा धर मंजळां (१९७९), मायड़ रो हेलो (१९८४), सबद (१९८५), सतवाणी (१९८७), अघोरी काळ (१९८७), दीठ (१९८८), कक्को कोड रो (१९८९), लीकलकोळिया (१९९१) अर हेमाणी (१९९९) । छंद अर गीत माथै तो जमर कवि सेठिया आपरी खिमता दरसाईज पंण नुवीं कविता रै लेखै बै "दीठ" (संपादक- तेजसिंह जोधा) आंदोलन सूं ई जम’र मुकाबलो करियो । बांरी कविता में बगत बगत माथै बदळाव ई आपां देख सकां अधुनिक अर आधुनिक होवता कवि सेठिया रो मूळ सुभाव एक अजातसत्रु रो रैयो है । बै खरै खरी एक संत कवि रै रूप में नुवीं कविता में दर्शन, ग्यान, विग्यान अर चिंतन रा केई केई मारग खोलणिया कवि हा । राजस्थानी गाथा रै साथै-साथै मानखै री पीड़ नै बां आखरां में ढाळी- अकाळ तो खैर राजस्थानी कविता रो स्थाई विसय रैयो है पण राजस्थानी भाषा री मान्यता रै मुद्दै माथै बां कविता करी । थोड़ै में कैवां तो कन्हैयालाल सेठिया तो गागर में सागर रा कवि है कै बांरी छोटी-छोटी कवितावां आप-आप री खासियता में जीवण रै विविध अनुभवां री कविता है । विधि रै विधान नै बखाणती कवितावां में कवि री चिंता किणी बडेरै-सी है कै आवण वाळी पीढी नै सावचेत करण वाळी है । जुगल परिहार रै सबदां में- " आपरी जलमभोम अर आपरै सांस्कृतिक परिवेश सूं जुड़िया थका सेठियाजी आपरै जुग री सामाजिक विषमतावां, शोषण अर दूजी विकृतियां सूं अणमणा नीं रैया अर आं बिथावां नै आपरी कवितावां रै जरियै वाणी दीवी । आध्यात्मिक स्वभाव रा हुवण सूं आं रौ मूळ स्वर अध्यात्मवादी रैयौ, सो आंरी घणकरी रचनावां मांय चिंतन री गैरी छाप मिलै ।"


सत्यप्रकाश जोशी


"जमानो केई सबक सिखायग्यो / लुगायां नै लेवता बेचता- / अर किराया माथै उठावता लोग / ना खुद लागै मिनख, / ना बै लुगायां लागै नारी-रतन ! " (ओळख) आजादी पछै सरू होई कवि सत्यप्रकाश जोशी री काव्य-जातरा में पैली तो मंचिय कविता रो घणो प्रभाव रैयो । सहस्त्रधारा नांव री पोथी १९५५ में छपी अर उण में हिन्दी राजस्थानी दोनू भासावां री कवितावां भेळै ही । पोथी "राधा" बरस १९६० में आपरी पौराणिक प्रसंग माथै सफल कव्य पोथी मानीजै, दीवा कांपै क्यूं १९६२ अर १९७४ में "बोल भारमली" रै मारफत तो जाणै गढ़ जीत लियो । गांगेय (१९८५), आगत-अणगत (१९८६), आहूतियां (१९८६), पुजापो (१९८७) अर सोन मिरगलो (२०००) आपरी सिमरध सिरजणा री साख भरै । कविता में लोक तत्त्व नै परोटणो कोई जोशी सूं सीखै । राजस्थानी समाज रै काण-कायदा अर बदळावां री विगत आपा आप री कवितावां सू जाण सकां । "राधा" माथै नुवीं कविता री गत में खंड-काव्य रचण री कला में जुद्ध-विरोधी धारणा री खूब-खूब सरावणा मिली तो "बोल भारमली" कविता पोथी सूं पैली बार लुगाई नै लुगाई अर पुरण पुरुस री सोच माथै नुवां सवालां रै हवालै अंजसजोग काम सत्यप्रकाश जोशी करियो । मिनख-लुगाई रै चरित्र नै कवि बारम्बार बखाणता उण मनगत नै सबदां रै पाण सजीव करी जिकी कै हाल तांई नुवीं कविता रै पाण कथीजणी बाकी ही । "गंगेय" में महाभारत रै भीस्म रै प्रसंग सू नारी-भावना बखाणता कवि जोशी री आंख राजस्थान में नारी जाति री मनगत अर मजबूरी कानी ई रैयी है । कवि री आपरी ईजाद करियोड़ी रळयावणी काव्य भासा अर लोक सू पोखिज्यो थको आपरो निजू सिल्प है जिण में कवि री लय बेजोड है सो सत्यप्रकाश जोशी रो एक सुर नुवीं कविता पैटै सदीव याद करियो जावैला । मिनखा जूण री केई केई देखी परखी निजू घटनावां अर कथावां बखाणता बांरी जुग रै बदळाव में प्रासंगिकता रै पाण कवि नुवां अरथ आपां सामीं राखै कै कविता जुग सूं घणी करीबी रिस्तो बणावण लागै । चेतन स्वामी रै सबदां में- "जोसीजी कनै कविता रो जिको ‘क्लासिक फार्म’ है वो नीं ‘आज’ सूं जुदा है, नीं ‘काल’ सूं अळ्गी । कविता में जिकी चीज खास होया करै- मांयलो लगाव, उणरी अपड़-पकड़ जोसी कनै खूब-खूब । लयकारी रै नातै, आनुप्रासिक बंधेज तो वांरी हरेक कविता री पंगत-पंगत में सैंचरूड़ होवै ।"


नारायणसिंह भाटी


" कालै ही म्हें कीट्स नै / पाछौ पढ़ियो / म्हनै लागौ / कै एक पल री जिन्दगी में / लाख बरस जिया जा सकै है / अर लाख बरस रौ इतिहास / एक पल रौ इतिहास है" ( कवि कीट्स नै फेरूं पढ़ियां) ओळूं, सांझ, दुर्गादास, जीवण धन, परमवीर, कळप, मीरां, बरसां रा डीगोड़ा डूंगर लांधियां, मिनख नै समझावणौ दोरौ है अर छेहली कविता पोथी पतियारौ कवि नारायणसिंह भाटी री काव्य जातरा रा पाका फळ है । दुर्गादास बरस १९५६ में छप्यो जिण सूं चरित-काव्य रचना में मुगत छंद री खिमता कवि नारयणसिंह भाटी उजागर करी । मिनख रै माण खातर जुद्ध मांडण वाळै री मनगत अर उजळै चरित नै नुवीं कविता में भी परोट्यो जाय सकै है आ थरपणा ही कवि भाटी री । १९७६ में मीरा माथै काव्य आप रै नुवां आयामां नै प्रगटै । बरस १९५४ "सांझ" छपी अर १९८४ "मिनख नै समझावणौ दोरौ है" आं तीस बरसां रै आंतरै में कवि नारायणसिंह भाटी री काव्य भासा आपरी निजू सबदावळी रो मोह लिया एक ठसकै वाळी काव्य भासा है, पण कवि जनता री भासा नै होळै-होळै "पतियारौ" तांईं कवि ओळखै । कवि री भासा माथै आपरी निजू पकड़ है सो आपां कवि री कोई पण कविता नै तुरत पकड़ सकां कै आ कविता नारायणसिंह भाटी री है । प्रकृति अर सौन्दर्य नै अंवेरण में कवि री रुचि कीं बेसी रैयी । कवि भाटी डिंगळ री परम्परा नै आधुनिक काल में साकार सिद्ध करण वाळा कवि हा अर बां बीं परम्परा रो रुतबो नुवीं कविता में प्रगट ई करियो । नारायणसिंह भाटी ई फगत अर फगत एक कवि है जिका डिंगळ नै साध परा नुवीं कविता री भासा में सिद्ध करी । छंदां री छटा अर प्राचीन साहित्य रै ग्यान रो आतंक नुवीं कविता नै डरावै । इण कवि रै जोड़ रो बीजो कोई कवि राजस्थानी में कोनी मिलै अर घणै अंजस री बात कै आप ई "परम्परा" शोध पत्रिका रो बरस १९७३ में हेमांणी अंक प्रकाशित करवायो अर केई संजीदा काम परम्परा रै मारफत करिया । कोमल कोठारी रै सबदां में- "सांझ रौ कवि जिकौ के भासा अर भावगत सूं मुगती री घोसणा करै हौ, वौ ई कवी आगली रचनावां में रूढ़ काव्योक्तियां कांनी चाल पड़ियौ । विसयां रै चुनांव अर जीवण मोलां नै उखेल’र फेकण में असमरथ लागण लागौ, जिका खुद उणरी मूळ काव्यगत प्रवृति रै सारू ई घांदौ हा । उण रौ व्यौहार, उदार संयम, भूतकाळ में देखण री प्रवृति अर अळसाई परम्परावां रौ बंधण धीरै-धीरै सिरै व्हेण लागौ ।"


पारस अरोड़ा


"तिरकोण हुयो चौकोण / कोण सूं कोण निकळ्गी / धीरै-धीरै / सगळौ दृस्टिकोण बदळग्यौ / काल रौ सांच नीं रैसी आज / आज रै सांच नीं रैसी काल / बगत रौ औ कैसौ जंजाळ / बगत हथियार, बगत है ढाळ " ( बगत री पाळ) कवि पारस अरोड़ा रा तीन काव्य-संग्रह छपियोड़ा है- ‘झळ’(१९७४), ‘जुड़ाव’ (१९८४) अर ‘काळजै में कलम लागी आग री’ (१९९४) अर आप एक सिमरध कवि रै रूप में ओळखीजै । आपरी कविता एक न्यारी काव्य भासा अर मुहावरो हासिल कर चुकी है अर भासा में संप्रेषण अर निजू काव्यात्मक सुर रै पाण आप आपरी पुखता कवि-ओळख राखता थकां राजस्थानी पाठकां सामीं सांवठो भरोसो दरसायो है । नैनी कवितावां रचण रै साथै साथै पारस अरोड़ा लाम्बी कवितावां ई रचण में माहरत हासिल करी है । लाम्बी कविता ‘जुड़ाव’ में कवि आपरै जीवण रै अनुभवां अर लखावां नै घणी चतराई रै साथै सरलता अर सैजता राखता थकां राखै । कवि कंपोजिटर रो काम जीवण में करता थकां कविता ई ‘कंपोजिटर’ माथै मांड़ी जिण में एक कम्पोजिटर री जिन्दगणी रो जींवत चित्रण हुयो है । ‘म्हैं सुणावूं, सुण’, ‘आपरै-म्हारै बिच्चै फरक’, अर ‘लो, संभाळै थांरी दुनिया’ आद आपरी चावी-ठावी कवितावां है । बगत रै बदळावां नै सबद सूं कैद करण वाळा कवि पारस अरोड़ा री कविता में एक लाम्बै बगत रो बदळाव देख सकां कै घर-परिवार, रिस्ता-नाता, समाजू हालत रै साथै साथै लोगां रै सोच में ई बदळाव आयग्यो है । छेहली बात कै कवि पाखती चीजां नै राखण रो एक सलीको है जिण रै कारण काव्य-संकलनां में खंड़ां रो बंटवारो अर चयन ई आपां रो ध्यान खींचै ।


भगवतीलाल व्यास


"आ, पवन ! / म्हारै कनै बैठ / तूं हांफ क्यूं रैयो है ? / छनीक विसराम कर / थनै सौरम रा / छंद सुणाऊं / सबदा रौ / अरथ समझाऊं !" (अगनी मंतर) भगवतीलाल व्यास री तीन काव्य पोथियां प्रकाशित है- अणहद नाद (१९८७), अगनी मंतर (१९९३) अर सबद राग (२०००) । कविता में सरल सीधी सपाट सी दीखण वाळी बात नै उठा परा आप उण नै एक दिसा में मोड़ता थका कविता में नुवै अरथ खोलण री खिमता हासिल करी है, आ आपरी निजू खासियत है । कविता नै जीवण जथारथ साथै-साथै सामाजिक रूप-रंग में देखण-परखण अर राखण रै कारण आप री कविता में एक ठीमर नै जिम्मेदार सुर मिलै । जीवन मूल्य, मानखै री आस्था अर विसवास नै प्रगटतां थकां कवि री रचनावां में जीवण नै जुद्ध मान नित जीवण सूं जूझ मांड़ण वाळा री कीरत कथा रो बखण ई मिलै तो सामाजिक जथारथ, विसमता अर विसंगतियां नै कविता में संवेटता मिनख रै जीवण-जुद्ध रै सुख-दुख जीत-हार रा चितराम ई मांड्या है । कवि आपरै चौफेर रै समस्त जगत सूं कव्य सरोकार राखै जिण सूं कविता में जठै मिनख है वठै प्रकृति, चर-अचर परिवेस ई पण उण री कविता है । काव्य भास आम आदमी री बोलचाल री सहज-सरल है । पोथी "अणहद नाद" बाबत कन्हैयालाल सेठिया री टीप ही- " मोटी बात आ है कै जको साहित सिरज्यो जावै बीं में दिस्टी हूणी चाहीजै, मनैं घणो संतोष है कै श्री भगवतीलाल जी सिस्टी में दिस्टी है ।"


मोहन आलोक


"बात / जणा कह नीं सकै / बात रै मांयली बात / तो कविता आवै / अनै आप रै / बिम्बां / प्रतीकां / उपमावां रै जरिये / अरथ नै पूग’र / एक सबद हू जावै ।" (एक सबद है कविता) ग-गीत(१९ ) डांखळा(१९ ) चित मारो दुख नै(१९ ) आप ( १९)सौ सोनेट(१९) एकर फेरूं राजियै नै(१९ ) वनदेवी : अमृता (२०००२) अर चिड़ी री बोली लिखौ (२००३) ऐ मोहन आलोक री काव्य साधना रा केई पांवड़ा है अर फगत एक मोहन आलोक ई राजस्थानी में प्रयोगशील कवि रै रूप में नित नुवीं पगडांडी काढ़-काढ़ लांबी जातरा करण वाळो जातरी है । गीत-गजल री बात छोड़ फगत नुवीं कविता री बात करां तो डांखळा, सोनेट, वेळियो, रूबाई अर पर्यावण माथै महाकाव्य लिखण वाळो ओ कवि नुवीं कविता नै नुवीं अर नुवीं बणाई अर कविता नै जीवण वाळो कवि है । अबै सवाल ओ है कै कविता नै जीवां किंयां ? "चिड़ी री बोली लिखौ / रंग फूल रो निःशब्द / कलम नै आंख में / पकड़ो / करो / आकास कागद ।" दूजो दाखलो- "चिड़ी उड़ी / ल्यो हुयगी कविता" तीजो दाखलो- "फूल रै नैड़ै जावौ / अर वीं सू आपरै / मन री बात कैवौ / उथळौ आवण री उडीक करो / थोड़ी ताळ / बीं कनै बैठा रैवौ ।" ओ है कविता नै जीवणो, अठै कविता नै अरथावणो कोनी फगत अर फगत उण आंख नै संभाळ’र आपां नै राखणी है जिकी सूं आपां कविता री दुनिया देख सकाला या कैवां दुनिया में कविता देख सकांला । कविता कवि आलोक आपरो निजू सुर साधता थका एक लय मेंटेन करै जिण रै पाण केई ओळ्यां तो घणी यादगार बण चुकी है । राजस्थानी कविता रै सीगै हाल कवि मोहन आलोक री काव्य-साधना री पूरी पड़ताल हुवणी बाकी है पण कवि री कला कविता नै नित नुवां रंग सूंपता थकां उण नै पठनीय अर चिंतन-मनन जोग बणावण में देखी जाय सकै है।


सांवर दइया


अबै अठै / सिरजण रा सुर क्यूं सोधै / ओ म्हारा बावळा मन! / उठ! / अंवेर आखर / जोड़ाअंनै कीं रच / अणरच्यो हुवै जिको आज तांई / रचण रो मोड़ थारी कलम माथै" (कसक) सांवर दइया (१९४८-१९९२) रा प्रकाशित कविता संग्रह है- मनगत (१९७६), काल अर आज रै बिच्चै (१९७७), आखर री औकात (१९८३), आखर री आंख सूं (१९८८), हुवै रंग हजार (१९९२) अर आ सदी मिजळी मरै (१९९६) । नैनी काव्य धारा सूं जुड़ता थका कवि सांवर दइया आपरै "मनगत" काव्य संग्रह में मनगत रा केई-केई दीठाव चितराम रूप राख्या अर "आखर री औकात" में बां आपरी मनगत नै एक छंद "हाइकू" काव्य-जनक रै रूप में सामीं राखी । कवि री लम्बी कविता में कथात्मक भाव मिलै- हुनर, कूकड़-कथा, अगन कथा आद । आ सदी मिजळी मरै में गजलनुमा कवितावां नै कवि पंचलड़ी कविता नांव दियो हो, सायद इण रो कारण ओ रैयो हुवैला कै गजल री बारीकी उर्दू करता राजस्थानी में निभणी सोरी कोनी । बिंयां कवि रो हिन्दी में पैली "दर्द के दस्तावेज" नांव सूं हिन्दी में गजल संग्रह पण छप्यो हो । कवि सांवर दइया रो कवि रूप खास कर नै "आखर री आंख सूं" अर "हुवै रंग हजार" में घणो असरदार लखावै क्यूं कै अठै कवि आपरी काव्य-भासा रै पाण कविता रो आंटो साध चुक्यो है, ऐ राजस्थानी नुवीं कविता री महतावूं पोथियां है । ओंकार श्री रै सबदां में- " असाधारण संवेदन, सहज सरल भासा, सचोट व्यंग्य अर घर-परिवार रा नियोजित रंग, सांवर दइया री कविता चेतणा री अंगेज जरूरी है । नुवीं ओळख सारू इणा री कविता प्रकाश स्तम्भ रो काम करैला ।"


चन्द्रप्रकाश देवळ


" सूखोड़ा पीळा पांन / होळैक / मयत डाळा सूं छूट जावै / कठैई कीं नीं व्है / पण म्हारै कानां कळपती आवाज.... / आकळियोड़ौ / अंग-विहूंण व्हैतौ म्हैं / सांभळूं सरणाटा रौ सिंधु-राग / अर करण लागूं जुद्ध / खुद नै पाछौ थरपण सारू !" (जुद्ध) कवि चन्द्रप्रकाश देवळ लगोलग कविता लिखण वाळा कवि है- पागी(१९७७) , कावड़(१९८७) , मारग(१९९२) , तोपनामा( ) , राग विजोग( ) अर उडीक पुराण(२०००) । कवि देवळ नुवीं कविता रै मूळ गुण कानीं संकेत करता लिखै -थे जाणौ ई कोनी / थारै अरथावण री बगत / म्हैं लय में छूट जावूंला / बिरथा कळाप छोड़ौ / म्हैं थारै हाथ नीं आवूंला । नुवीं कविता अरथावण री चीज कोनी बा तो सुण-बांचण एक अनुभव-अनुभूति रै भाव में पूगण रो जरियो है । कवि मोहन आलोक तो लिख्यो ई है- भासा नै जावण दे, भावां नै आवण दे..। भाव स्तर माथै सायद ओ ई कारण है कै देवळ री कविता हाल अरथाइजी कोनी । बगत फैसलो करैला कै कवि कन्हैयालाल सेठिया पछै राजस्थानी कविता में एक क्रांतिकारी नांव चन्द्रप्रकाश देवळ रो है जिणा रै कारण राजस्थानी कविता में आपां नै विसयगत विविधता अर विचार री नवीनता रा केई-केई मारग मिल्या है । नुवीं कविता रो कविता-विसय अर आपरै कथन माथै मोह देवळ री कवितावां में भी आपां देख सकां । किणी विसय माथै बारम्बार विचारणो अरसबदां रै सीगै नुवां नुवां अरथ तांई पूगणो ई देवळ री मूळ काव्यगत विसेसता है । कवि देवळ राजस्थानी में सांतरी गद्य-कवितावां ई लिखी है । गोरधनसिंह शेखावत रै सबदां में- " लोकजीवण री सहजता सूं आज रै मिनख री समस्यावां नै आपरी कविता में उजागर करी है । आपरी कवितावां में ताजगी अर सहजता है ।"


अर्जुनदेव चारण


"होयजा निरपेख / अबोट / चीजां नै टाबर देखै ज्यूं देख / खुद नै सोध / हिलती छींयां रै मांय / बध / जांनै टाबर भरियौ होवै / पै’लौ पांवडौ / रच ।" (रच) अर्जुनदेव चारण रो ‘रिंधरोही’ काव्य संग्रह छप्यां पछै दूजो काव्य संग्रह "घर तौ नांव है एक भरोसै रो" आयो है । आप कवितावां लिखै तो है पण छपै कोनी सो कोई म्हारी इण बात सूं असहमत होय सकै कै नुवीं कविता पैटै कवि चारण री कीरत सदियां गावैला क्यूं कै रामायण अर महाभारत रै पौराणिक संदर्भां नै नुवीं दीठ सूं परोटतां थकां बां राजस्थानी नुवीं कविता रो रुतबो घणो ऊचो करियो है । कथा नै कविता में ढाळण री माहरत जाणै कवि नै किणी वरदान सरूप ई मिली है कै बां जूना नारी चरित्रां नै सजीव करता थकां आज रै प्रसंग में केई केई सवालां रै बरोबर अड़ा-अड़ी में ऊभा कर देवै । कविता में भास सहज सरल होवता थकां पण नाटकीय हुनर रै पाण कवि काळजै रै ऐन बिचाळै ऊभो होयर बोलै । ऊभी ही ऊभी रैयी नाजोगा री भीड़ या ओळी वौ तौ हौ राम बायरौ राम का फेर थू मोरपांख सू खोलिया उण जुग रा वजर किंवाड़ जैड़ी केई केई ओळ्यां जाणै मन-मगज में आपरी स्थाई गूंज करै जाणै किणी ठौड़ कोई नाम-पट्टो बणार पूरो कबजो कर लियो हुवै । किणी एक विसय माथै ई कवि री रचनावां में विविधता अर रंगां री मनमोवणी छटा ई देखण जोग है । घर-परिवार रै प्रसंगां री कवितावां ई घणी मार्मिक है । कुंदन माळी रै रिंधरोही माथै टीप करतां एक ठौड़ लिखै जिकी बात कवि चारन रै पूरै काव्य माथै ई लागू करी जाय सकै- " मिनख रै पारिवारिक संदर्भा नै केई कवितावां में कवि पौराणिक बिम्ब प्रतीक अर चरित्रां रै माध्यम सूं प्रगट करै । अठै आ बात उल्लेखनीय है कै कवि आं पौराणिक चरित्रां नै बदळतै समै अर परिपेख रै हिसाब सूं नुंवा अरथ देवण री सारथक कोसिस करै ।"


ओम पुरोहित ‘कागद’


"इसै समै / कविता बांचणौ / अनै लिखणौ / किणी जुध सूं स्यात ई कम हुवै ।" (कविता) ओम पुरोहित ‘कागद’ रा च्यार कविता संग्रह प्रकाशित हुया है- अंतस री बळत(१९८८), कुचरणी (१९९२), सबद गळगळा (१९९४), बात तो ही (२००२) अर आं रचनावां में कवि री सादगी, सरलता, सहजता अर संप्रेषण री खिमता देखी जाय सकै । कवि राजस्थानी कविता रै सीगै नैनी कविता री धारा नै नुवै नांव दियो- ‘कुचरणी’ अर केई अरथावूं कुचरणियां रै पाण आधुनिक राजस्थानी री युवा-पीढ़ी री कविता में आपरी ठावी ठौड़ कायम करी है । कविता नै प्रयोग रो विसय मानण वाळा केई कवियां दांई ओम पुरोहित ‘कागद’ री केई कवितावां में प्रयोग पण देख्या जाय सकै है अर एक ही शीर्षक माथै केई-केई कवितावां सूं उण विसय नै तळां तांई खंगाळणो ई ठीक लखावै । कवि रो कविता में मूळ सुर अर सोच मिनखा-जूण अनै मिनख री अबखायां-अंवळ्या खातर है जिण में कवि ठीमर व्यंग्य ई करण री खिमता राखै ।

बांचणियां नै आगली ओळ्यां----
राजस्थानी नुवीं कविता रो ओ एक दीठाव है पण इण रै आखती-पाखती मांय-बारै खासो कीं भळै है-


कीं तौ खायगौ राज
कीं लिहाज
अर रह्यौ सह्यौ खायगी चूंध अर खाज
{ चौथी ओळी बांचणियां नै
-जचै ज्यूं मांड़ौ आज }
(बांचणियां नै चौथी ओळी : तेजसिंह जोधा)

तेजसिंह जोधा री कविता जातरा नुवीं कविता नै हरी झंडी दिखावण जिती ई रैयी है पण बै आगौ री पारी नै बीजा कवियां नै संभळापरा जचै ज्यूं मांडण नै छोड़ग्या सो राजस्थानी कविता में एक गतिरोध तो दूर हुयो पण कवियां री भीड़ में कविता री ओळख पूरी पांगरी कोनी । कविता में गद्य सी सहजता अर सरलता सादगी हुवण सूं जठै कविता बयान बणगी अर देस-समाज- मिनख रा हाल कविता सूं बखाण परा कवियां बगत नै रचण री जिम्मेदारी निभाई ।


डर खाली इतरौ कै / बिना विरोध
अकारण ही मार दै कोई / बैठै सूते नै बिना बेर / बिनां बकारयां ई ।
(डर लागै : अन्नाराम सुदामा)

साथै ई आपां अठै विचार करां कै कविता रै सरलीकृत रूप माथै थोड़ो ध्यान दिया पद्य अर गद्य री सींवां में रैवतां थकां महतावू सिरजणा कर सकांला । बिंयां नुवीं कविता री एक धारा गद्य-कविता ई राजस्थानी में छुट-पुट रूप में आपरी पांखियां पसार रैयी है पण नुवीं कविता री गद्य सू दोस्ती एक मोटी खासियत बणर आपां सामीं है । श्यामसुन्दर भारती रै सबदां में- " आपरी बुणगट में आज री कविता गद्य रै नैड़ी है पण गद्य में औ सुभीतौ के- खालिस गद्य में जठै सब कीं साफ-साफ नै परतख होवै, अमूरत नै रहस री गुंजाइस नीं रै बराबर होवै, सब पत्ता खुला-खुला होवै, बठै पद्य में खासी लपेटियोड़ी बात ई चाल जावै ; चला देवै ।"


कितरा आछा हा वै दिन
जद लोग / आपणा नै तौ आपणौ
पण / पराया नै भी आपणौ कैवता
सगळा / एक दूजै रा दुख दरद में / सरीक रैवता ।
(आंतरो : रमेश मयंक)

कवियां रो देस-काल समाज सूं लगाव अर घर-परिवार सूं जुड़ाव-आंतरो कविता में नुवीं भावुकता अर सहज संवेदना साथै देखण में मिलणो आज री नुवीं कविता री खासियत बण नै आपां सामीं है ।


माफ करज्यौ / औसाण ई नीं मिल्यौ
ऐ दांत कद टूटग्या थारा ! / अर ऐ धोळा बाळ ?
आ बैठ, गौर सू देखूं थनै ।
कदै भाजौ-भाज में / आ जिनगाणी भाज नीं जावै ।
(आ बैठ बात करां : रामस्वरूप किसान)

अबै बात करां बां जूनी पीढ़ी अर नुवी पीढ़ी रा केई मोटा नांवां री जिणां माथै विगतवार बात अठै कोनी करीज सकी है- किशोर कल्पनाकांत, रामेश्वरदयाल श्रीमाळी, प्रेमजी प्रेम , सत्येन जोशी, बी.एल. माली ‘अशांत’, आईदानसिंह भाटी, श्याम महर्षि, नन्द भारद्वाज, लक्ष्मीनारायण रंगा, ज्योतिपुंज, मालचंद तिवाड़ी, श्यामसुंदर भारती, कुंदन माली, मीठेश निरमोही, पुरुषोत्तम छंगाणी, अम्बिका दत्त, बाबूलाल शर्मा, वासु आचार्य, सत्यदेव चूरा, नीरज दइया, शंकरसिंह राजपुरोहित, रवि पुरोहित, राजेश कुमार व्यास, प्रमोद कुमार शर्मा, रमेश मयंक, संतोष मायामोहन, कमल रंगा, सुमन बिस्सा, मदनगोपाल लढ़ा आद केई नांव है जिणा री बात बिना ओ आलेख आधो-अधूरो है पण इण नै आगै कणाई पूरो करांला । छेकड़ में युवा कवियां नै पारस अरोड़ा रै सबदां सूं कैवणो चावूं कै - "नवी छंद बिहूणी कविता नै ई एक अंतस लय री जरूरत व्है अर कवी नै आपरै कथ रै अनुकूल भासा अर मुहावरो बरतणौ पड़ै । इणी दीठ नवै कवियां नै खासी सावचेती बरतणी पड़ैला । कथ अर ढाळै मांय सूं किणी एक नै खास मांनण सू बात नीं बणै । दोनूं एक दूजै रा पूरक है । एक रै कमजोर हुयांम दूजौ पख कमजोर पड़ै ।"

Friday, March 20, 2009

जगदीश प्रसाद सोनी री लघुकथा


तार

जगदीश प्रसाद सोनी
अनु. नीरज दइया


इस बार बहुत दिन हो गए हैं । गांव जाकर नहीं आया, क्या मालूम घर पर सब कैसे होंगे । मां और बाबूजी तो चिंता ही कर रहें होंगे, पर समय ही नहीं मिलता- क्या करूं ? वह अपने मन में सोचता रहा ।
शहर की नौकरी में जल्दी से छुट्टी भी तो नहीं मिलती । फिर एक-दो दिन की छुट्टी में बच्चों को इधर से उधर पटने में भी कोई सार नजर नहीं आता । इन को छोड़ कर अकेले भी जाया नहीं जा सकता । अच्छे झंझंटों में फंसा हूं !

- हेलो, कौन.... मां...... ! हां मां पांवधोक । आ गई तुम ! मैं हरी बोल रहा हूं जयपुर से । बाबूजी के कैसे हैं... ? अच्छा.... हां छोटू टाइम पर स्कूल तो जाता है ना ? गांव में बरसात पानी है या इस बार भी अकाल है .....।
इतनी देर में जैसे वह अपनी मां, बाबूजी और पूरे परिवार के साथ बैठा था और सब से राजी-खुशी की बातें कर रहा था, पर टंगी हुई पट्टी पर कम्प्यूटर से बढ़ते बिल को देख कर उस का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा था, वह बहुत ही जल्दी-जल्दी बोला था मगर बढ़ते रुपए.....। जल्दबाजी में वह मां की तबियत का हाल भी पूछ नहीं सका ! और अंत में वह थका-सा बोला- अच्छा मां अब फोन रखता हूं ।
रिसीवर रखते हुए उसे लगा कि मानो मन के तार अलग-अलग हो गए हैं । अब वह कहां और उसकी मां कहां !

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

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