Sunday, December 28, 2014

बेहतरीन उपन्यास “इन्सानों की मंडी”

जीवन के मर्म को समझने की दिशा

श्री मधु आचार्य “आशावादी” का बेहतरीन उपन्यास “इन्सानों की मंडी” / डॉ. नीरज दइया

(दिनांक 28-12-2014 रविवार को कवि-उपन्यासकार श्री मधु आचार्य “आशावादी” की पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर पठित पत्र-वाचन )

मधु आचार्य “आशावादी” के नवीन उपन्यास “इन्सानों की मंडी” और कविता-संग्रह “मत छीनो आकाश” के लोकार्पण-समारोह के अवसर पर सर्वप्रथम मैं उन्हें बधाई देना चाहता हूं। आज के इस दौर में जब साहित्य और लेखन से समाज दूर होता जा रहा है, उसके पास अवकाश ही नहीं है। लेखन को किसी काम की श्रेणी में नहीं माना जा रहा है, ऐसे समय में इस काम के प्रति निरंतर आस्था बनाए रखना बेहद कठिन होता जा रहा है। आश्चर्य होता है कि मधु जी अपनी अति-व्यस्तताओं के बीच, अपने समय में से बहुत सारा समय लेखन के लिए कैसे निकाल लेते हैं! गत दो वर्षों का आकलन करें तो पाएंगे कि वे सर्वाधिक लिखने और पुस्तकें सामने लाने वाले लेखक के रूप में उभर कर सामने आते हैं। अठारह के करीब किताबें प्रकाशित हो चुकी है और कोई आपके काम के विषय में चर्चा करता है तो भास्कर का जिक्र ही आता है। समाज में संपादक के रूप में कार्य-गरिमा स्वीकार्य है, और प्रयास यह है कि समाज में लेखन को कार्य के रूप में गरिमा स्थापित होनी चाहिए।  
      आज के इस अवसर पर सृजन से संबंधित मैं अपनी कुछ बातें आपसे साझा करना चाहता हूं। विचार की अपनी कोई भाषा नहीं होती है। कोई विचार संसार की किसी भी भाषा में आकार ग्रहण कर सकता है। हमारे भीतर विचारों के आने-जाने का सिलसिला लगा रहता है। यह जटिल प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। हमारे चाहने या न चाहने का इसमें कोई विकल्प नहीं। लेखक-कवि अपने विचारों का पीछा करते हैं। किसी विचार को समझना और कागज पर उतारना सरल नहीं और साहित्य के क्षेत्र में इस कार्य की जटिलता कई गुना कही जा सकती है। हर लेखक का एक ही सपना होता है कि उसका विचार पाठक तक पहुंच जाए। मधु आचार्य “आशावादी” ने अपने हर उपन्यास में विचारों की दुनिया से पाठकों का रिस्ता बनाने का सफल प्रयास किया है।     
      यदि मैं मेरे एक विचार को किसी पंक्ति के रूप में प्रकट करता हूं कि “इन्सानों की मंडी” उपन्यास मधु आचार्य “आशावादी” का बेहतरीन उपन्यास है। आपका प्रतिप्रश्न होगा- बेहतरीन क्यों है? क्या बेहतरीन है? सवाल और संदेह करना हमारी स्वतंत्रता है। सवाल और संदेह होने चाहिए और निरंतर होने चाहिए। क्योंकि हम नहीं जानते कि कौनसे सवाल और संदेह से हमारी यात्रा का प्रस्थान बिंदु निर्मित होने वाला है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि हम अपने में इतने खो गए हैं कि हमारे सवाल और संदेह सभी सोए हुए हैं। एक उपन्यासकार के रूप में मधु आचार्य “आशावादी” ने कुछ सवालों और संदेहों को जाग्रत करने का काम किया हैं।
सवाल और संदेह उपन्यास “इन्सानों की मंडी” के शीर्षक में ही समाहित है। इन्सानों की मंडी क्यों है? यह इन्सानों की मंडी क्या है? यह पूरी प्रक्रिया है। मधु आचार्य “आशावादी” के पूर्व उपन्यासों का स्मरण करें तो यहां इस उपन्यास तक पहुंचना एक यात्रा लगेगी। “गवाड़”, “मेरा शहर”, “खारा पानी” और “हे मनु!” के नायकों अथवा कथा की भी मूल प्रवृति किसी न किसी विचार से जुड़ी है। क्या इसे हम इस रूप मे कह सकते हैं कि उपन्यासकार को यह विचार खलता रहा कि मेरा शहर की गवाड़ के बीच इन्सानों की मंडी का भी विचार होना चाहिए। मैं मानना है और आप भी इससे सहमत हो सकते हैं कि हमारे सवाल और संदेह ही हमें सदैव चुनौतियों को स्वीकारने की हिम्मत देते हैं।
इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही जहां हम विश्व-ग्राम की बात कर रहे हैं, वहीं हमारी बहुत करीब की एक दुनिया है और जहां के इन्सानों को मंडियों में पहुंच कर खुद को बेच देने का विकल्प झेलना पड़ रहा है। बिकना उन इन्सानों की मजबूरी है। “इन्सानों की मंडी” की कथा हमें बेचैन करने वाली है। विकास की बात और आकंडों को दिखाने वालों के सामने “इन्सानों की मंडी” अपने आप में एक प्रमाण है कि हमें इन बातों पर पुर्नविचार कर लेना चाहिए। असल में उपन्यास के नायक मुकुन्द की सह-नायक आलोक के माध्यम से पूरी यात्रा सही अर्थों में स्वयं को आलोकित करने की यात्रा है। आप उपन्यास से नई रौशनी में आ सकते हैं और इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि आप किसी की दुनिया में नई रौशनी के खुद को माध्यम भी बना सकते हैं। एक रचना की सार्थकता इसमें है कि उसे पढ़कर हम स्वयं में किसी बदलाव को महसूस करें। इस उपन्यास में ऐसा एक विकल्प है। इसके विस्तार में कहा जाना चाहिए कि यह उपन्यास हमें इन्सान बनाने और बने रहने के विकल्प स्मरण करता है।
      उपन्यास “इन्सानों की मंडी” में बेहद सरल और साधारण सी लगने वाली मजदूर-गाथा को उठाया गया है। यह गाथा हम अपने शहर में या किसी भी शहर में हम देख सकते हैं। सुबह सुबह कुछ लोग खुद को बेचने के लिए किसी स्थान विशेष पर एकत्र होकर इस दुनिया की दौड़-भाग में शामिल होते हैं। बिकने वाले भी इन्सान है और खरीदने वाले भी इन्सान है। इन्सान के श्रम का यह व्यपार वर्षों से चला आ रहा है। इस पर सवाल और संदेह उपन्यास के माध्यम से “आशावादी” करते हैं। उम्दा बात यह है कि उनके सवाल और संदेह उपन्यास पढ़कर हमारे बन जाते हैं।
      आज जब पूरी दुनिया में मशीनों का आतंक है और इन्सान भी अपनी संवेदनाओं की बली देकर मशीनों में तब्दील होते जा रहे हैं। ऐसी इस दुनिया में मशीन-इन्सानों का संवेदनशील इन्सान के रूप में रूपांतरण अथवा पुनर्स्थापना करना ही उपन्यास का मुख्य उद्देश प्रतीत होता है। इन्सानों के शोषण की इस कथा को प्रगतिवादी सोच कह देने भर से समस्या हल नहीं हो जाती। दुनिया का सच यह है कि गरीब और अमीरों कि इस दुनिया में गरीब कम और अमीर अधिक है। अमीर का अभिप्राय उन इन्सानों से है जिनको जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए बिकने पर मजबूर नहीं होना पड़ता है। जो बिकने पर मजबूर है वे खुद को गरीब माने तो यह सच हो सकता है किंतु हमारी दुनिया में अमीर भी खुद को गरीब ही मानते हैं। जिस घर में दो सौ –चार सौ रुपये आते है या लाखों-हजारों रुपये आते हैं वे सभी खाते तो रोटी ही है।
विज्ञान की इतनी प्रगति के बाद भी हर इन्सान के पेट की आग का निदान नहीं किया जा सका है। “इन्सानों की मंडी” उपन्यास पेट की आग का एक परिदृश्य हमारे सामने खोलता है जिससे हमें सबक लेना है। प्रतिदिन की समस्या है भूख और इस समस्या का हल निकालने वाला कोई आविष्कार होना शेष है। हम ऐसा नहीं कह सकते कि ऐसा नहीं हो सकता है। सब कुछ हो सकता है। जब इन्सान खुद अपनी संवेदनाओं और मानवीय गुणों को भूल कर खुद को मशीन बना कर अपनी दुनिया में रह सकता है तो उसके लिए मुश्किल कौनसा काम है? उपन्यासकार मधु आचार्य “आशावादी” उपन्यास “इन्सानों की मंडी” में ऐसा कोई समाधान हमारे समक्ष प्रस्तुत नहीं करते हैं। वे इस मजदूर-महागाथा को इसके अनेक घटकों को समाहित करते हुए अंत में उसी जमीन से ही प्रतीक रूप चेतना को जाग्रत होते हुए दिखाते हैं।
“इन्सानों की मंडी” उपन्यास में जहां मजदूरों की शहर में अलग-अलग मंडियां है तो वहीं उनके अलग-अलग वर्ग भी हैं। युवा और व्यस्यक मजदूर, प्रौढ़ और बूढे मजदूर, महिला मजदूरों के अतिरिक्त बाल-श्रम और भूखमरी के दिनों में कचरा बिनते या कचरे में भोजन तलाशे बच्चों की अनेक उप-कथाएं इस उपन्यास में समाहित है। पूरे उपन्यास की सफलता का श्रेय इसकी भाषा और संवादों को दिया जा सकता है। सरल-सहज भाषा में संवाद बेहद प्रभावशाली है। मेरा मानना है कि इस उपन्यास को मधु आचार्य “आशावादी” ने एक सफल नाटककार होने से ही इसे अंत तक ले जाने की समर्थता हासिल है, यह केवल किसी कथाकार के बस की बात नहीं थी। उपन्यास में नाटककार का प्रखर रूप सामने आता है। सधी हुई भाषा और संवाद इस उपन्यास के प्राण कहें जा सकते हैं। असल में यह पूरा उपन्यास एक विमर्श है। उपन्यास के रूप में इसे रचने से विषय की प्रभावोत्पादकता निसंदेह बढ़ी है। उपन्यासकार हमारे मन के भीतर प्रवेश कर उसे कहीं स्थायी स्पर्श करता है इसिलिए मैंने आरंभ में इसे बेहतरीन उपन्यास की संज्ञा दी थी। यह रचना अंततः अपने उद्देश्य में सफल होती है।
कोई लेखक इस विमर्श को लेकर उपन्यास की तुलना में इसे किसी वैचारिक निबंध के रूप में लिखना पसंद कर सकता था। इस विषय पर वैचारिक निबंध लिखें गए हैं और लिखे जाते रहेंगे। मेरी अपनी सीमाएं है और मैंने इस विषय पर ऐसा पहला उपन्यास “इन्सानों की मंडी” पढ़ा है। यह मुद्दा ज्वलंत और प्रासंगिक है। इस समस्या को कौन देखेगा? किसकी जिम्मेदारी है ऐसे लोग? घर-परिवार की जिम्मेदारी घर-परिवार के मुखिया की होती है और वह या उसके स्थान पर उसके परिवार का कोई सदस्य इस जिम्मेदारी का वाहन करता है, करना चाहता है। सवाल और संदेह के घेरे में वे लोग हैं जो हमारे समाज-गांव-शहर और देश की जिम्मेदारी का दावा तो करते हैं। यह एक पूरी शृंखला है। इस कार्य में समाजसेवी संस्थाएं भी अपने अपने ढंग से जुटी है। हम सभ्य से सभ्य होते जा रहे हैं। ऐसी बस्तियों और लोगों के बीच यदा-कदा जाकर हम अपने दानी और दयावान होने का दंभ भी पोषित करते हैं। इन सब के बावजूद यह एक सच्चाई है कि यह एक समस्या है और बड़ी समस्या है। चलिए इसका हल जब-तब होगा, किंतु फिलहाल हम इतना तो कर ही सकते हैं कि इस उपन्यास को पढ़कर ऐसे इन्सानों से किए जाने वाले हमारे व्यवहार को कुछ संतुलित करने की जिम्मेदारी को समझे। हम इन्सानों के श्रमजीवी होने का सम्मान करें। यह उपन्यास श्रम की महत्ता को उजागर करता हुआ हमारे भीतर उसके महत्तव को प्रतिप्रादित भी करता है, वहीं मजदूर ही नहीं व्यापक रूप में हर इन्सान के प्रति हमारी संवेदनाओं को भी जाग्रत संतुलित व्यवहार का पाठ भी पढ़ता है। उपन्यास का सह-नायक आलोक सूत्रधार के रूप में बिना उपदेशक का रूप धारण किए पाठकों को आलोकित करता हुआ जीवन के मर्म को समझने की दिशा भी देता है।  
मधु आचार्य आशावादी अपने पूर्व उपन्यासों में प्रयुक्त शैल्पिक आयुध यहां भी प्रयुक्त करते हैं। इन्सानों की मंडी उपन्यास की कथा ग्यारह भागों में रची गई है और प्रत्येक भाग के लिए पृथक शीर्षक उपन्यासकार ने दिया है। उपन्यासकार की खूबी है कि वह अपने पात्रों को जहां कथा-विकास के मार्ग पर रेखांकित करता चलता है वहीं पाठकों को भी किसी नाटक के दर्शक के रूप में घटनाक्रम से इस प्रकार जोड़े रखता है कि वह धीर-गंभीर कथा में उतरता हुआ अंत की प्रतीक्षा करता हैं। यह ऐसा समापन है कि इसका अंदाजा हमें पहले नहीं होता। यहां इस प्रभावशाली शैली को उपन्यासकार की निजता के रूप में रूढ़ होते हुए देखा जा सकता है।
मेरा मनना है कि उपन्यास के लिए किसी भी लेखक का लंबा चिंतन हुआ करता है और मधु आचार्य “आशावादी” ने हमारी संवेदनाओं को जाग्रत करने वाले इस उपन्यास को बहुत विचार-मंथन के बाद ही उतारा है। कला हमें संस्कारित करती है, वह हमारे भीतर परिवर्तन लाती है। साहित्य के रूप में उपन्यास विधा के माध्यम से हमारा यह संस्कारित-परिवर्तित और परिवर्द्धित होना हम यहां देख सकते हैं। अपने उद्देश्य से परिपूर्ण इस उपन्यास के लिए एक बार फिर से उपन्यासकार-कवि मधु आचार्य “आशावादी” को बधाई देना चाहता हूं। अपनी कविताओं में एक जगह मधु आचार्य “आशावादी” लिखते हैं- “आज कहता हूं खुलकर / हवाओं का रुख बदलना आता है मुझे।” यह उपन्यास के पाठ को आत्मसात करने के उपरांत हमें लगता है कि हमारे भीतर की हवाओं का रुख बदल गया है।
अब कविता की करें तो मेरी आवधारणा है कि “मत छीनो आकाश” की कविताएं कवि की निजी संवेदनाओं का काव्य-रूपांतरण है, वहीं इनमें अनेक संकेत और संदर्भ भी हैं। सर्वाधिक प्रभावशाली बात जिस से मैं प्रभावित हूं कि कवि के रूप में कविताएं लिखते समय मधु आचार्य “आशावादी’ अपने कहानीकार और उपन्यासाकार होने से मुक्त जाते हैं। मेरी त्रासदी यह है कि मैं इनके कथाकार रूप से मुक्त नहीं हो पाता। मैं सीधे-सीधे यही कह रहा हूं कि मुझे आज लोकार्पित दोनों पुस्तकों में उपन्यास मुग्ध करने वाला लगा। परिहास में कहे तो उपन्यास अपनी अनेक उपकथाओं के उपरांत भी एक है और कविताओं को देखें तो इनका वितान बहुत बड़ा और गहरा है। आकाश को नहीं छीनने की बात है। आपको क्या यह विरोधाभास नहीं लगता कि अपने उपन्यास में धरती की बात करने वाले कवि आचार्य कविताओं में आकाश की बातें करते हैं। असल में यह रचनाकार को अपनी दुनिया को पूर्णता देना है बिना आकाश के धरती नहीं होती और ऐसी कोई धरती नहीं जिसका आकाश नहीं हो।
फिलहाल मैं कविता की बात करने से इसलिए भी कतरा रहा हूं कि एक पूरे उपन्यास जिस में संवेदनाओं के खो जाने और उनकी पुनर्स्थापना की बाते मैं कर रहा था, वहीं उन्हीं संवेदनाओं के अनेक रूपों के साक्ष्य कविताओं में मुझे प्रतीत होते हैं। हमारे यहां कहा भी जाता है कि ठंडा और गर्म साथ नहीं होना चाहिए। तो नर्म नर्म और कुछ उष्मित-सी कविताओं में डूबने-डूबोने का दायित्व मंच पर उपस्थित हमारे आज के अतिथियों को सौंपता हुआ मैं आपसे विदा लेता हूं। आपका आभार कि आपने मुझे ध्यान से सुना और आयोजक संस्था का भी आभार कि मुझे अपनी बात साझा करने का अवसर दिया। आभार।

Friday, December 26, 2014

किताबों के लोकार्पण के बाद देशनोक-यात्रा

श्री मधु आचार्य आशावादी की किताबों के लोकार्पण के बाद देशनोक-यात्रा





चित्र : सौजन्य गीतकार-कहानीकार श्रीमती रजनी मोरवाल, अहमदाबाद 

Wednesday, November 26, 2014

लोक साहित्य के पुरोधा स्व. श्री नानूराम संस्कर्ता की पुण्यतिथि पर सम्मान-समारोह

व्यंग्यकार नागराज शर्मा का सम्मान, संस्कर्ता के अवदान को याद किया
बीकानेर/ कालू/। भारतीय जनता पार्टी के नेता सुरेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा कि राजस्थानी विश्व की समृद्धतम भाषाओं में से एक है। संवैधानिक मान्यता इसका वाजिब हक है। वे मंगलवार को ख्यातनाम साहित्यकार नानूराम संस्कर्ता की पुण्यतिथि पर कालू कस्बे के मां जगदम्बा यात्री निवास घर सभागार में ओंळू री अंवेर कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रुप में संबोधित कर रहे थे।
शेखावत ने कहा कि राजस्थानी भाषा को पाने के लिए हम सबको सामूहिक प्रयास करना होगा। इसके लिए विभिन्न स्तर पर प्रयास जारी है। सभी के सामूहिक प्रयास से किसी भी काम को किया जा सकता है।
व्याख्याता डॉ. गजादान चारण ने कहा कि नानूराम संस्कर्ता ने राजस्थानी कहानी को नई जमीन दी। उनकी भाषा हमारी गर्व करने योग्य विरासत है। किया गया। इस अवसर पर नानूराम संस्कर्ता स्मृति साहित्य सम्मान से पिलानी के नामी व्यंग्यकार नागराज शर्मा को सम्मानित किया गया। समारोह में साहित्य अकादमी के बाल साहित्य पुरस्कार से अलंकृत नीरज दइया व युवा पुरस्कार से सम्मानित राजूराम बिजारणियां का अभिनन्दन किया गया।
लोक साहित्य प्रतिष्ठान व चंद्रसाहित्य प्रकाशन की ओर से आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पूर्व भाजपा मण्डल अध्यक्ष हजारीराम सारस्वत ने कहा कि राजस्थानी हमारी मातृ भाषा है। मां, मातृभूमि व मातृ भाषा का दर्जा सबसे उपर होता है। व्यंग्यकार व बिणजारो पत्रिका के सम्पादक नागराज शर्मा ने कहा कि यह सम्मान उनके लिए गर्व का विषय है क्यांेकि इसके साथ राजस्थानी के पुरोधा नानूराम संस्कर्ता का नाम जुड़ा है।
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि चर्चित कवि आलोचक डा नीरज दइया ने नई पीढ़ी को भाषा व साहित्य से जोड़ने की जरूरत बताई।
डॉ मदन गोपाल लढ़ा ने कहा कि संस्कर्ता जी का साहित्य गा्रमीण समाज की आंकाक्षाओं व अवरोधों का प्रामाणिक दस्तावेेज है। डॉ महेन्द्र मील ने कहा कि साहित्य समाज को संस्कारित करता है। राजूराम बिजारणियां ने नानूराम संस्कर्ता के प्रकृति काव्य को अनूठा बताया। कार्यक्रम में कवयित्री मोनिका गौड़,, प्रकाषदान चारण व समाजसेवी सीताराम सारस्वत ने विचार व्यक्त किये। बाल साहित्यकार रामजीलाल घोड़ेला ने नागराज शर्मा का परिचय दिया। लोक साहित्य प्रतिष्ठान की ओर से शिवराज संस्कर्ता ने आगंतुकों का स्वागत किया। इससे पूर्व कार्यक्रम की शुरूआत मां सरस्वती व संस्कर्ता जी के तैल चित्र पर माल्यापर्ण से की गई। बालिकाओं ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। नानूराम संस्कर्ता साहित्य सम्मान समिति की ओर से नागराज शर्मा का शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र व नकद राशि से अभिनन्दन किया गया। कार्यक्रम का मंच संचालन कमलकिशोर पिपलवा ने किया। तीर्थराज संस्कर्ता ने आभार जताया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साहित्यकार, शिक्षक, ग्रामीण, विद्यार्थी शामिल हुए।











Monday, November 24, 2014

नानूराम संस्कर्ता स्मृति राजस्थानी साहित्य सम्मान


मां, मातृभूमि व मातृ भाषा का दर्जा सबसे ऊपर

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व्यंग्यकार नागराज शर्मा का सम्मान, संस्कर्ता जी के अवदान को याद किया ख्यातनाम साहित्यकार नानूराम संस्कर्ता की पुण्यतिथि पर बीकानेर जिले के कालू कस्बे के मां जगदम्बा यात्री निवास घर सभागार में मंगलवार को ओंळू री अंवेर कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस अवसर पर नानूराम संस्कर्ता स्मृति साहित्य सम्मान से पिलानी के नामी व्यंग्यकार नागराज शर्मा को सम्मानित किया गया। समारोह में साहित्य अकादमी के बाल साहित्य पुरस्कार से अलंकृत नीरज दइया व युवा पुरस्कार से सम्मानित राजूराम बिजारणियां का अभिनन्दन किया गया।
लोक साहित्य प्रतिष्ठान व चंद्रसाहित्य प्रकाशन की ओर से आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए पूर्व भाजपा मण्डल अध्यक्ष हजारीराम सारस्वत ने कहा कि राजस्थानी हमारी मातृ भाषा है। मां, मातृभूमि व मातृ भाषा का दर्जा सबसे उपर होता है। व्यंग्यकार व बिणजारो पत्रिका के
सम्पादक नागराज शर्मा ने कहा कि यह सम्मान उनके लिए गर्व का विषय है क्योंकि इसके साथ राजस्थानी के पुरोधा नानूराम संस्कर्ता का नाम जुड़ा है। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि भाजपा नेता सुरेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा कि राजस्थानी विष्व की समृद्धतम भाषाओं में से एक है। संवैधानिक मान्यता इसका वाजिब हक है। जिसे पाने के लिए हम सबको सामूहिक प्रयास करना होगा। व्याख्याता डॉ. गजादान चारण ने कहा कि नानूराम संस्कर्ता ने राजस्थानी कहानी को नई जमीन दी। उनकी भाषा हमारी गर्व करने योग्य विरासत है। चर्चित कवि आलोचक डा नीरज दइया ने नई पीढ़ी को भाषा व साहित्य से जोड़ने की जरूरत बताई। डॉ मदन गोपाल लढ़ा ने कहा कि संस्कर्ता जी का साहित्य गा्रमीण समाज की आंकाक्षाओं व अवरोधों का प्रामाणिक दस्तावेज है। डॉ महेन्द्र मील ने कहा कि साहित्य समाज को संस्कारित करता है। राजूराम बिजारणियां ने नानूराम संस्कर्ता के प्रकृति काव्य को अनूठा बताया। कार्यक्रम में कवयित्री मोनिका गौड़,, प्रकाशदान चारण व समाजसेवी सीताराम सारस्वत ने विचार व्यक्त किये। बाल साहित्यकार रामजीलाल घोड़ेला ने नागराज शर्मा का परिचय दिया। लोक साहित्य प्रतिष्ठान की ओर से शिवराज संस्कर्ता ने आगंतुकों का स्वागत किया। इससे पूर्व कार्यक्रम की शुरूआत मां सरस्वती व संस्कर्ता जी के तैल चित्र पर माल्यापर्ण से की गई। बालिकाओं ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। नानूराम संस्कर्ता साहित्य सम्मान समिति की ओर से नागराज शर्मा का शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र व नकद राशि से अभिनन्दन किया गया। कार्यक्रम का मंच संचालन कमल पिपलवा ने किया। तीर्थराज संस्कर्ता ने आभार जताया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साहित्यकार, शिक्षक, ग्रामीण, विद्यार्थी शामिल हुए।






Saturday, November 15, 2014

क्या हमारी यह मांग जायज नहीं ?


डॉ. नीरज दइया




         मेरी पुरस्कृत राजस्थानी बाल-कहानियों की पुस्तक का नाम जादू रो पेनयानी जादुई पेन है। इसे जादू नहीं तो क्या कहेंगे कि किसी रचना की पहली पंक्ति, यहां तक कि किसी शब्द को चयनित करते हुए भी कुछ सहमा और निरंतर संदेह से जूझने वाला यह लेखक आज यहां उपस्थित है। आगे कुछ कहने से पूर्व राजस्थानी के संयोजक डॉ. अर्जुनदेव चारण, परामर्श मंडल, चयन समिति और पूरे साहित्य अकादेमी परिवार आभार प्रदर्शित करता चलूं। अंत में आभार औपचारिक लगाता है।
किसी भी प्रकार का ज्ञान सदैव हमारे आनंद का हनन करता है। बाल साहित्य के संदर्भ में यह उक्ति कुछ अधिक अर्थवान सिद्ध हुई है। शब्दों की दुनिया में आज अनेक खतरे और संकट महसूस किए जा सकते हैं। प्रत्येक लेखक अपने शब्दों से एक संसार गढ़ता है। इस शब्द-संसार के विषय में मैं कहना चाहता हूं कि हमारे गढ़े जाने के बाद, दूसरे समय में कोई अंतर और अंतराल क्यों होता है। मेरी आकांक्षा ऐसे शब्द हैं जो मेरे भावों से किसी विषयांतर को दूर रखे। किसी बात का अलग रूप में पहुंचना अथवा नहीं पहुंचना किस की कमी है? आज भूमंडलीकरण के इस दौर में बाल साहित्य विमर्श अनिवार्य है। यांत्रिकता और मूल्यों के बदलाव ने बाल मन को भी नहीं छोड़ा है। ऐसा लगता है कि पुराने अर्थ शब्दों को अलविदा कह रहे हैं। इस नए समय में कुछ नया करने की आवश्यकता है। युग सापेक्ष सृजन हेतु जहां स्व-मूल्यांकन की आवश्यता है वहीं यह भी सोचना जरूरी है कि क्या हम हमारी पुरानी दुनिया बच्चों को सौंपना चाहते हैं, या बदलती दुनिया से मुकाबला करने की जिम्मेदारी और जबाबदेही हेतु उनको समर्थ बनाना चाहते हैं।  
आज मुझे मेरी बाल-स्मृतियों बुला रही है। उस समय की बहुत सारी बातों को आज याद नहीं किया जा सकता। वे बहुत सी बातें भीतर कहीं लुप्त हो गई हैं। उस दौर में कभी यह सोचा न था कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अभिभाषण में मेरा बचपन मुझे आवाज देगा। मेरी अब तक की साहित्य-यात्रा अनेकानेक विवरणों का रोमांचकारी समुच्चय है। मैं लेखक क्यों हूं? जब इस सवाल के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मैंने लेखन को विरासत के रूप में अंगीकार किया है। मेरे पिता साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार से सम्मानित राजस्थानी के प्रख्यात कहानीकार श्री सांवर दइया से मैंने लेखन की विधिवत शिक्षा-दीक्षा तो नहीं पाई, बस उनके अध्ययन-कक्ष से कुछ किताबें पढ़कर कोई बीज बना होगा। बाल पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकालय के प्रति मेरी रुचि ने जिस मार्ग तक पहुंचाया, उसमें मेरे शिक्षकों और पिता के साहित्यिक-लगाव ने मुझे वह पर्यावरण दिया। जहां मैं कुछ आधारभूत बातें सीख सका। मेरे अनुभव ने बल प्रदान किया कि कुछ लिखने से पहले पढ़ना जरूरी है।
वर्ष 1982 के बाद का कोई समय है जो स्मृति-पटल पर अब भी अंकित है। मेरे पिता हिंदी शिक्षक के रूप में जिस विद्यालय में सेवारत थे, उसकी नवमीं कक्षा में मैंने प्रवेश लिया था। एक दिन प्रातः कालीन प्रार्थना सभा में हमें सूचना दी गई कि सांवर दइया जी को राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का पुरस्कार उनके कहानी संग्रह के लिए घोषित किया गया है। उसी दौर में कवि कन्हैयालाल सेठिया की कृति मायड़ रो हेलोसे मातृभाषा राजस्थानी से लगाव में अभिवृद्धि हुई। साथ ही राजस्थानी भाषा और साहित्य के उन्नयन के लिए श्री रावत सारस्वत और श्रीलाल नथमल जोशी द्वारा चलाए गए उल्लेखनीय अभियान भी मेरी बाल-स्मृति में है। राजस्थानी के प्रचार-प्रसार के उस दौर में जैसे मुझे मेरा कोई सीधा मार्ग मिल रहा था। सच तो यह है कि उस समय ऐसा लगा कि मैं अब तक किसी असुविधाजनक मार्ग पर था, और जैसे इन सब बातों-घटनाओं ने मेरी अंगुली मेरी भाषा को थमा दी। मेरे लेखन में लगभग दस वर्षों का आरंभिक काल बड़ा आनंदमय रहा। जादू रो पेनकी अधिकांश रचनाएं उसी समय लिखी गई।
मेरी बाल कहानियों में बाल-स्मृतियों की विभिन्न घटनाएं कहानियों के रूप में प्रकट  हुई है। मुझे लगता है कि बाल साहित्य लेखन के लिए जिस बालमन की आवश्यकता होती है, वह मुझे अपने घर-परिवार में सहजता से सुलभ हुआ। राजस्थानी की लोकप्रिय मासिक पत्रिका माणकने इन बाल कहानियों को प्रकाशित कर मुझे बाल साहित्य के लेखक के रूप में नाम दिया। कुछ बाल कहानियां मैंने बाद लिखी, उसके बारे में मुझे लगता है उनमें अभिव्यक्त आनंद, मेरे अपने ज्ञान से मुक्त नहीं है। बालकों के लिए लिखने के लिए बालक बन कर उन जैसी सहजता, सरलता और निश्छलता पाना आवश्यक है।
प्रकाशन-संकट व पत्र-पत्रिकाओं के अभाव का कारण राजस्थानी भाषा को सरकारी संरक्षण नहीं मिलना है। कोई लेखक क्यों और किस के लिए लिखें? लगभग दस वर्षों से अधिक समय जादू रो पेनके प्रकाशन में लगा। इसका प्रकाशन जैसे किसी मृत पांडुलिपि में प्राणों का संचार होना था, वहीं मेरे बाल साहित्यकार का दूसरा जन्म भी। राजस्थानी में जयंत निर्वाण, बी.एल. माली, भंवरलाल भ्रमर, आनंद वी. आचार्य, रामनिरजंन ठिमाऊ, दीनदयाल शर्मा, नवनीत पाण्डे, हरीश बी. शर्मा, मदन गोपाल लढ़ा, विमला भंडारी, रवि पुरोहित आदि लेखक बाल साहित्य की विविध विधाओं में सक्रिय है। यह सच है कि इन वर्षों मैं बाल-साहित्य नहीं लिख पाया। बाल साहित्य लिखना आज के दौर में बड़ों के साहित्य-लेखन से भी मुश्किल हो गया है। अनेक प्रश्नों और आशंकाओं ने मुझे घेर रखा है। ऐसा क्यों हुआ? यह तो मैं नहीं जानता, किंतु लगता है कि मैं अब अभय होकर नहीं लिख सकता। शायद यह भय स्वयं को एक जिम्मेदार लेखक मानने से भीतर लद गया है। गत वर्षों में मैंने कविता, आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र में कुछ काम करने का प्रयास किया है। मुझे लगता है कि मेरा लेखन मेरे दिवंगत लेखक पिता को फिर-फिर अपने भीतर जीवित करने और स्वयं को ऊर्जावान करने का उपक्रम है। वर्तमान दौर में लेखन को कार्य के रूप में सामाजिक मान्यता नहीं है। हमारी चिंता होनी चाहिए कि समाज में लेखन को पर्याप्त सम्मान मिले।
जटिल से जटिलतर होते जा रहे इस समय में सरल कुछ भी नहीं, सरलता कहीं भी नहीं। ऐसे में बाल साहित्य लेखन से जुड़ी हमारी जिम्मेदारियां और अपेक्षाएं निश्चय ही अपरिमित है। यह जिम्मेदारी मैं इस रूप में भी ग्रहण करता हूं कि बच्चों में आयु-विभेद से जुड़ी जटिलताएं और विभेदीकरण के बिंदु कुछ अधिक मिलते हैं। हम लिखते तो बच्चों का साहित्य है किंतु अकसर वह किसी वर्ग विशेष अथवा आयु विशेष के लिए सिमट कर रह जाने की त्रासदी भोगता है।
मेरा मानना है कि किसी भी युवा, प्रौढ़ अथवा वृद्ध के भीतर का उसका बचपन सदा-सदा हरा रहता है, और इस रूप में सभी के अंतस में एक बालमन जीवित रहता है। बाल साहित्य के पाठक केवल बच्चे ही नहीं है। इसमें बड़े बच्चे और बूढ़े भी शामिल हैं। ऐसे में इस समग्र-पाठक संसार से एक उभयनिष्ट छोटे संसार को हमें पहचानना है। पाठक के रूप में बालक-बालिका या कुछ चयनित समूह के बच्चों की परिकल्पना मैं करता हूं। जब मैं लिखता हूं तो मुझे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि मैं किस के लिए लिख रहा हूं। किसी इकाई के रूप में हर रचना से पहले यह विचार करना मुझे आवश्यक जान पड़ता है। किसी आदर्श और उभयनिष्ट इकाई को स्वीकारना बाल साहित्य के परिपेक्ष्य में सरल कार्य नहीं है।
मैं जिस भाषा और प्रदेश का लेखक हूं वहां मेरे सामने आ रही चुनौतियों का अंदाजा आप इस रूप में लगा सकते हैं कि एक समय हिंदी के हित में शहीद की गई मेरी मातृ-भाषा राजस्थानी आज भी रोती-बिलखती है। उसे अपने बच्चों और घर-परिवार से अलग रखा गया है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम साहित अनेक शिक्षा समितियों के प्रबल प्रावधानों के बावजूद प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत हमारे बच्चे को अपनी मातृभाषा से वंचित रखा गया है। कुछ सीखने और सहजता से पढ़ने की उम्र में बच्चों का सामना अनेकानेक उलझनों से होता है। घर की भाषा और स्कूल की भाषा में अंतर है। बच्चे कुंठित और दुविधाग्रस्त है। उनका सर्वांगीण विकास भाषा के अभाव में कैसे संभव है? बच्चों के माता-पिता के सामने इन सब बातों की तुलना में बड़ा संकट रोजगार का है। अभावों में निरंतर जीवनयापन करते परिवारों के बच्चे निरंतर स्कूल को अलविदा कहते जा रहे हैं। वहां ऐसे समय में कोई जादू काम नहीं कर सकता।
यकीनन जैसा कि मैंने आरंभ में कहा कि मुझे बचपन में बहुत बाद में अपनी मातृभाषा की अंगुली थामने का सुख मिला। किसी भाषा को मां के रूप में स्वीकार किए जाने की अहमियत का अहसास मिलना बहुत जरूरी है। वही अहसास मैं अपनी भाषा में लिख कर अपने नन्हें दोस्तों को देना चाहता हूं। मैं राजस्थानी में इसलिए लिखता हूं। आज साहित्य अकादेमी के इस मंच से मेरे प्रदेश के उन सवा एक करोड़ से अधिक बच्चों की तरफ से मैं यह पुरजोर मांग करता हूं कि उनकों उनके अधिकार दिए जाए। मेरे इस उद्‍बोधन की अंतिम पंक्ति पर आप सभी का समर्थन चाहूंगा- क्या हमारी यह मांग जायज नहीं कि राजस्थान के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में होनी चाहिए।

(साहित्य अकादेमी बाल साहित्य पुरस्कार को ग्रहण करने के बाद दिया गया लेखकीय-संभाषण)




Friday, November 14, 2014

"जादू रो पेन" के लिए साहित्य अकादेमी बाल साहित्य पुरस्कार 2014





मेरी पुरस्कृत राजस्थानी बाल-कहानियों की पुस्तक का नाम “जादू रो पेन” यानी जादुई पेन है। इसे जादू नहीं तो क्या कहेंगे कि किसी रचना की पहली पंक्ति, यहां तक कि किसी शब्द को चयनित करते हुए भी कुछ सहमा और निरंतर संदेह से जूझने वाला यह लेखक आज यहां उपस्थित है। आगे कुछ कहने से पूर्व राजस्थानी के संयोजक डॉ. अर्जुनदेव चारण, परामर्श मंडल, चयन समिति और पूरे साहित्य अकादेमी परिवार आभार प्रदर्शित करता चलूं। अंत में आभार औपचारिक लगाता है।
किसी भी प्रकार का ज्ञान सदैव हमारे आनंद का हनन करता है। बाल साहित्य के संदर्भ में यह उक्ति कुछ अधिक अर्थवान सिद्ध हुई है। शब्दों की दुनिया में आज अनेक खतरे और संकट महसूस किए जा सकते हैं। प्रत्येक लेखक अपने शब्दों से एक संसार गढ़ता है। इस शब्द-संसार के विषय में मैं कहना चाहता हूं कि हमारे गढ़े जाने के बाद, दूसरे समय में कोई अंतर और अंतराल क्यों होता है। मेरी आकांक्षा ऐसे शब्द हैं जो मेरे भावों से किसी विषयांतर को दूर रखे। किसी बात का अलग रूप में पहुंचना अथवा नहीं पहुंचना किस की कमी है? आज भूमंडलीकरण के इस दौर में बाल साहित्य विमर्श अनिवार्य है। यांत्रिकता और मूल्यों के बदलाव ने बाल मन को भी नहीं छोड़ा है। ऐसा लगता है कि पुराने अर्थ शब्दों को अलविदा कह रहे हैं। इस नए समय में कुछ नया करने की आवश्यकता है। युग सापेक्ष सृजन हेतु जहां स्व-मूल्यांकन की आवश्यता है वहीं यह भी सोचना जरूरी है कि क्या हम हमारी पुरानी दुनिया बच्चों को सौंपना चाहते हैं, या बदलती दुनिया से मुकाबला करने की जिम्मेदारी और जबाबदेही हेतु उनको समर्थ बनाना चाहते हैं।
आज मुझे मेरी बाल-स्मृतियों बुला रही है। उस समय की बहुत सारी बातों को आज याद नहीं किया जा सकता। वे बहुत सी बातें भीतर कहीं लुप्त हो गई हैं। उस दौर में कभी यह सोचा न था कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार के अभिभाषण में मेरा बचपन मुझे आवाज देगा। मेरी अब तक की साहित्य-यात्रा अनेकानेक विवरणों का रोमांचकारी समुच्चय है। मैं लेखक क्यों हूं? जब इस सवाल के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मैंने लेखन को विरासत के रूप में अंगीकार किया है। मेरे पिता साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार से सम्मानित राजस्थानी के प्रख्यात कहानीकार श्री सांवर दइया से मैंने लेखन की विधिवत शिक्षा-दीक्षा तो नहीं पाई, बस उनके अध्ययन-कक्ष से कुछ किताबें पढ़कर कोई बीज बना होगा। बाल पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकालय के प्रति मेरी रुचि ने जिस मार्ग तक पहुंचाया, उसमें मेरे शिक्षकों और पिता के साहित्यिक-लगाव ने मुझे वह पर्यावरण दिया। जहां मैं कुछ आधारभूत बातें सीख सका। मेरे अनुभव ने बल प्रदान किया कि कुछ लिखने से पहले पढ़ना जरूरी है।
वर्ष 1982 के बाद का कोई समय है जो स्मृति-पटल पर अब भी अंकित है। मेरे पिता हिंदी शिक्षक के रूप में जिस विद्यालय में सेवारत थे, उसकी नवमीं कक्षा में मैंने प्रवेश लिया था। एक दिन प्रातः कालीन प्रार्थना सभा में हमें सूचना दी गई कि सांवर दइया जी को राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का पुरस्कार उनके कहानी संग्रह के लिए घोषित किया गया है। उसी दौर में कवि कन्हैयालाल सेठिया की कृति “मायड़ रो हेलो” से मातृभाषा राजस्थानी से लगाव में अभिवृद्धि हुई। साथ ही राजस्थानी भाषा और साहित्य के उन्नयन के लिए श्री रावत सारस्वत और श्रीलाल नथमल जोशी द्वारा चलाए गए उल्लेखनीय अभियान भी मेरी बाल-स्मृति में है। राजस्थानी के प्रचार-प्रसार के उस दौर में जैसे मुझे मेरा कोई सीधा मार्ग मिल रहा था। सच तो यह है कि उस समय ऐसा लगा कि मैं अब तक किसी असुविधाजनक मार्ग पर था, और जैसे इन सब बातों-घटनाओं ने मेरी अंगुली मेरी भाषा को थमा दी। मेरे लेखन में लगभग दस वर्षों का आरंभिक काल बड़ा आनंदमय रहा। ‘जादू रो पेन’ की अधिकांश रचनाएं उसी समय लिखी गई।
मेरी बाल कहानियों में बाल-स्मृतियों की विभिन्न घटनाएं कहानियों के रूप में प्रकट हुई है। मुझे लगता है कि बाल साहित्य लेखन के लिए जिस बालमन की आवश्यकता होती है, वह मुझे अपने घर-परिवार में सहजता से सुलभ हुआ। राजस्थानी की लोकप्रिय मासिक पत्रिका “माणक” ने इन बाल कहानियों को प्रकाशित कर मुझे बाल साहित्य के लेखक के रूप में नाम दिया। कुछ बाल कहानियां मैंने बाद लिखी, उसके बारे में मुझे लगता है उनमें अभिव्यक्त आनंद, मेरे अपने ज्ञान से मुक्त नहीं है। बालकों के लिए लिखने के लिए बालक बन कर उन जैसी सहजता, सरलता और निश्छलता पाना आवश्यक है।
प्रकाशन-संकट व पत्र-पत्रिकाओं के अभाव का कारण राजस्थानी भाषा को सरकारी संरक्षण नहीं मिलना है। कोई लेखक क्यों और किस के लिए लिखें? लगभग दस वर्षों से अधिक समय ‘जादू रो पेन’ के प्रकाशन में लगा। इसका प्रकाशन जैसे किसी मृत पांडुलिपि में प्राणों का संचार होना था, वहीं मेरे बाल साहित्यकार का दूसरा जन्म भी। राजस्थानी में जयंत निर्वाण, बी.एल. माली, भंवरलाल भ्रमर, आनंद वी. आचार्य, रामनिरजंन ठिमाऊ, दीनदयाल शर्मा, नवनीत पाण्डे, हरीश बी. शर्मा, मदन गोपाल लढ़ा, विमला भंडारी, रवि पुरोहित आदि लेखक बाल साहित्य की विविध विधाओं में सक्रिय है। यह सच है कि इन वर्षों मैं बाल-साहित्य नहीं लिख पाया। बाल साहित्य लिखना आज के दौर में बड़ों के साहित्य-लेखन से भी मुश्किल हो गया है। अनेक प्रश्नों और आशंकाओं ने मुझे घेर रखा है। ऐसा क्यों हुआ? यह तो मैं नहीं जानता, किंतु लगता है कि मैं अब अभय होकर नहीं लिख सकता। शायद यह भय स्वयं को एक जिम्मेदार लेखक मानने से भीतर लद गया है। गत वर्षों में मैंने कविता, आलोचना और अनुवाद के क्षेत्र में कुछ काम करने का प्रयास किया है। मुझे लगता है कि मेरा लेखन मेरे दिवंगत लेखक पिता को फिर-फिर अपने भीतर जीवित करने और स्वयं को ऊर्जावान करने का उपक्रम है। वर्तमान दौर में लेखन को कार्य के रूप में सामाजिक मान्यता नहीं है। हमारी चिंता होनी चाहिए कि समाज में लेखन को पर्याप्त सम्मान मिले।
जटिल से जटिलतर होते जा रहे इस समय में सरल कुछ भी नहीं, सरलता कहीं भी नहीं। ऐसे में बाल साहित्य लेखन से जुड़ी हमारी जिम्मेदारियां और अपेक्षाएं निश्चय ही अपरिमित है। यह जिम्मेदारी मैं इस रूप में भी ग्रहण करता हूं कि बच्चों में आयु-विभेद से जुड़ी जटिलताएं और विभेदीकरण के बिंदु कुछ अधिक मिलते हैं। हम लिखते तो बच्चों का साहित्य है किंतु अकसर वह किसी वर्ग विशेष अथवा आयु विशेष के लिए सिमट कर रह जाने की त्रासदी भोगता है।
मेरा मानना है कि किसी भी युवा, प्रौढ़ अथवा वृद्ध के भीतर का उसका बचपन सदा-सदा हरा रहता है, और इस रूप में सभी के अंतस में एक बालमन जीवित रहता है। बाल साहित्य के पाठक केवल बच्चे ही नहीं है। इसमें बड़े बच्चे और बूढ़े भी शामिल हैं। ऐसे में इस समग्र-पाठक संसार से एक उभयनिष्ट छोटे संसार को हमें पहचानना है। पाठक के रूप में बालक-बालिका या कुछ चयनित समूह के बच्चों की परिकल्पना मैं करता हूं। जब मैं लिखता हूं तो मुझे यह भी ज्ञान होना चाहिए कि मैं किस के लिए लिख रहा हूं। किसी इकाई के रूप में हर रचना से पहले यह विचार करना मुझे आवश्यक जान पड़ता है। किसी आदर्श और उभयनिष्ट इकाई को स्वीकारना बाल साहित्य के परिपेक्ष्य में सरल कार्य नहीं है।
मैं जिस भाषा और प्रदेश का लेखक हूं वहां मेरे सामने आ रही चुनौतियों का अंदाजा आप इस रूप में लगा सकते हैं कि एक समय हिंदी के हित में शहीद की गई मेरी मातृ-भाषा राजस्थानी आज भी रोती-बिलखती है। उसे अपने बच्चों और घर-परिवार से अलग रखा गया है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम साहित अनेक शिक्षा समितियों के प्रबल प्रावधानों के बावजूद प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत हमारे बच्चे को अपनी मातृभाषा से वंचित रखा गया है। कुछ सीखने और सहजता से पढ़ने की उम्र में बच्चों का सामना अनेकानेक उलझनों से होता है। घर की भाषा और स्कूल की भाषा में अंतर है। बच्चे कुंठित और दुविधाग्रस्त है। उनका सर्वांगीण विकास भाषा के अभाव में कैसे संभव है? बच्चों के माता-पिता के सामने इन सब बातों की तुलना में बड़ा संकट रोजगार का है। अभावों में निरंतर जीवनयापन करते परिवारों के बच्चे निरंतर स्कूल को अलविदा कहते जा रहे हैं। वहां ऐसे समय में कोई जादू काम नहीं कर सकता।
यकीनन जैसा कि मैंने आरंभ में कहा कि मुझे बचपन में बहुत बाद में अपनी मातृभाषा की अंगुली थामने का सुख मिला। किसी भाषा को मां के रूप में स्वीकार किए जाने की अहमियत का अहसास मिलना बहुत जरूरी है। वही अहसास मैं अपनी भाषा में लिख कर अपने नन्हें दोस्तों को देना चाहता हूं। मैं राजस्थानी में इसलिए लिखता हूं। आज साहित्य अकादेमी के इस मंच से मेरे प्रदेश के उन सवा एक करोड़ से अधिक बच्चों की तरफ से मैं यह पुरजोर मांग करता हूं कि उनकों उनके अधिकार दिए जाए। मेरे इस उद्बोाधन की अंतिम पंक्ति पर आप सभी का समर्थन चाहूंगा- क्या हमारी यह मांग जायज नहीं कि राजस्थान के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में होनी चाहिए।
(साहित्य अकादेमी बाल साहित्य पुरस्कार को ग्रहण करने के बाद दिया गया संभाषण)




Monday, November 03, 2014

बीकानेर कला एवं साहित्य उत्सव- 2014

विषय : राजस्थानी भाषा लोक विरासत एवं नव लेखन  
बीकानेर कला एवं साहित्य उत्सव, डागा पैलेस, नोखा रोड़, बीकानेर में 01-11-2014 को 04.30 बजे से 06.00 परिचर्चा : "राजस्थानी भाषा, लोक विरासत और नवलेखन" सानिध्य : चंद्रप्रकाश देवल, नंद भारद्वाज, आईदान सिंह भाटी, बुलाकी शर्मा, कमल रंगा एवं शंकरसिंह राजपुरोहित / सूत्रधार : नीरज दइया 





डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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