Sunday, December 13, 2015

संवेदनशीलता को बचाने की एक मुहिम : मधु आचार्य की रचनात्मकता

विपुल मात्रा में साहित्य-लेखन हेतु चर्चित नामों में इन दिनों मधु आचार्यआशावादीशामिल है। आपके उपन्यासों के क्रम में हे मनु!’, ‘खारा पानी’, ‘मेरा शहर’, ‘इन्सानों की मंडी’, ‘@24 घंटे’, के बाद अपने हिस्से का रिश्ताछठा हिंदी उपन्यास है। राजस्थानी और हिंदी में समान रूप से लिखने वाले भाई आशावादी के उपन्यासों में यदि राजस्थानी उपन्यास गवाड़’, ‘अवधूत’, ‘आडा-तिरछा लोगको शामिल करें तो इसे नौवा उपन्यास कहा जाएगा। यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि आचार्य ने विविध विधाओं में समान गति से लिखा है, और इसी क्रम में उनका पहला बाल-उपन्यास अपना होता सपनानई शुरुआत है।
      सवालों में जिंदगी’, ‘अघोरी’, ‘सुन पगली’, ‘ऊग्यो चांद ढळ्यो जद सूरज’, ‘आंख्यां मांय सुपनोके बाद अब अनछुआ अहसास और अन्य काहनियांआपका छठा कहानी-संग्रह प्रकाशित हुआ है। ऐसे में कहा जाना चाहिए कि कथा-विधा में मधु आचार्य आशावादीने अपनी रचनात्मकता के बल पर बहुत कम अवधि में राजस्थान से एक शिखर जैसा कीर्तिमान स्थापित किया है। जैसा कि मैंने कहा कि आप विविध विधाओं में सक्रिय हैं, गद्य और पद्य में समान गति से लेखन कर रहे हैं। आज आपके सातवे कविता संग्रह देह नहीं जिंदगीपर मेरे मित्र सुरेश हिंदुसतानी अपनी बात रखेंगे, मैं गद्य विधा की तीन पुस्तकों पर अपनी बात रखने की अनुमति मंच से चाहता हूं।
            सर्वप्रथम हम मधु आचार्य ‘आशावादी’ के बहाने एक रचनाकर के सृजन-लोक की बात करें कि कोई रचनाकार अपने भीतर ऐसा क्या पाता है कि उसका निदान वह अपनी रचना के माध्यम से करता है। रचनाकार भी समाज का एक सामान्य प्राणी ही होता है और हर रचनाकार के समक्ष किसी भी रचना से पूर्व अनेकानेक सवाल और संदेह होते हैं, और संभवतः इसी कारण हर रचनाकार अपनी सृजन-प्रक्रिया में बारंबार नवीन सृजन से स्वयं को प्रमाणित करता है। असल में कोई भी रचना रचनाकार के रचनाकार होने का प्रमाण ही तो है। 
      रचना एक नितांत व्यक्तिक कार्य है और उसका प्रकाशन-लोकार्पण उसे अपने लोक को समर्पित कर देना। लोक में रचना को समर्पित करने के पीछे का भाव निसंहेह अपने लोक को रचना द्वारा आलोक देना भी हुआ करता है। हर रचनाकार की अपनी सृजन-प्रक्रिया हुआ करती है, ऐसा भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक रचना का जन्म अपनी पूर्ववर्ती रचनाओं से भिन्न होता है। इसी के रहते भिन्न-भिन्न प्रविधियों और कुछ चयन द्वारा किसी रचना को अभिव्यक्त होने का मार्ग रचनाकार खोजता हुआ सक्रिय रहता है। किसी भी पाठ में निहित अभिप्राय और संकेतों के साथ अनेक संदेह-सवाल हम तक शब्दों के माध्यम से पहुंचा करते हैं।
      शब्दों में पूर्व निहित अर्थ और अभिप्राय हर बार नवनीन विन्यास में नए अर्थ और अभिप्रायों को व्यंजित करने को बेचैन रहते हैं। इसी बेचैनी को रचना का उत्स भी कहा गया है। ऐसी बेचैनी यथार्थ के चित्रण में अपनी त्वरा के साथ प्रकट होती है। ऐसी ही कुछ विचार-भूमि को लिए हुए मैं मधु आचार्य ‘आशावादी’ की नवीन कृतियों के समीप पहुंचने की कोशिश करता हूं। असल में हर रचना के पाठ में अपनी पूर्ववर्ति भूमिका लिए हुए ही कोई पहुंचा करता है। यदि हम स्वयं का गत आकलन मिटाना चाहे तो भी यह संभव नहीं होता। ऐसी हमारी और हर रचना-पाठ की नियति है। मुझे लगता है कि साहित्यकार आशावादी की इन तीन पुस्तकों में प्रेम और संघर्ष की विभिन्न मनःस्थितियां उम्र के भिन्न-भिन्न सौपानों में घटित होते हुए प्रस्तुत करने की अभिलाषा उनके सृजन की प्रेरणा अथवा भूमिका रही है।
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                  मधु आचार्य ‘आशावादी; के ‘अनछुआ अहसास और अन्य कहानियां’ संग्रह में सात प्रेम कहानियां संग्रहित है। इन कहानियों की पृष्ठभूमि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष किसी सत्य पर आधारित प्रतीत होती है। कहानी सत्य पर ही आधारित हो, ऐसा अनिवार्य नहीं हुआ करता किंतु इन कहानियां में जो अभिव्यक्त है, उससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है जो अभिव्यक्त नहीं है किंतु उसे प्रस्तुत करने का यहां प्रयास किया गया है। यहां यह सर्वाधिक आकर्षित करने वाला तथ्य है कि इन कहानियों में युवा प्रेम का आवेग उफान पर चित्रित और चिह्नित किया गया है। इस युवा-आवेग को बिना जाने-समझे इन कहानियों की पूर्णता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इन कहानियों के पाठ में प्रेम की अनेक घटनाएं नाटकीय और कपोल-कल्पना अथवा बिलकुल असत्य जैसी प्रतीत हो सकती है, किंतु मेरा मानना है कि इनके पाठ के बाद तत्काल ऐसा कहना थोड़ी जल्दबादी होगी। यदि आप किशोरावस्था और किशोर-मनोविज्ञान के अध्येता रहे हैं तो आपको वही स्थितियां सहज और स्वाभाविक लगेंगी जो बहुत सरसरी निगाह में मिथ्या प्रतीत होती हैं। मधु आचार्य की कहानियां अपनी पठनीयता एवं संवेदनशीलता के बल पर पाठकों को बांधे रखने में सक्षम हैं। मॉरीशस के साहित्यकार राज हीरामन के अनुसार- ‘पारिवारिक और सामाजिक सीमाओं को लांघती, रूढ़ीवाद की दहलीज के अंदर दम तोड़ती और संघर्ष करती सातों कहानियां प्यार से लबालब है। न कहीं कम, न कहीं ज्यादा!
      विभेद की दृष्टि से प्रेम के सफल अथवा असफल होने का विभाजन किया जा सकता है, और राज हीराम ने पुस्तक का फ्लैप लिखते हुए ऐसा किया भी है, किंतु इस विभाजन से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है मधु आचार्य द्वारा आधुनिक संदर्भों में इक्कीसवी सदी की युवा पीढ़ी के प्रेम का बदलता रंग-रूप चिह्नित कर रेखांकित करना। यहां पाठ की कुछ सहमतियां और असहमतियां प्रेमचंद द्वारा रचित निबंध ‘साहित्य का उद्देश्य’ की इन पंक्तियों के माध्यम से देखी-समझी जानी चाहिए। बकौल प्रेमचंद- ‘साहित्य केवल मन-बहलाव की चीज नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनाता, किंतु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है, और उन्हें हल करता है।’ मेरा मानना है कि आज हमारी सबसे बड़ी समस्या हमारे प्रेम से जुड़ी है अथवा प्रेम ही उन सभी समस्याओं का उत्स है।
      तकनीकी क्रांति और बदलते सामाजिक परिवेश में जीवन-मूल्य ढहते जा रहे हैं। इन सब के बीच बाह्य और आंतरिक संघर्ष का संताप हम ढो रहे हैं। ऐसे में अपनी इन कहानियों में अनेक स्थलों पर कहानीकार ने हमारे आस-पास के घटनाक्रम द्वारा हर पीढ़ी को आगाह करते हुए जैसे कुछ कहने का आगाज किया है। यह कहना किसी उपदेश अथवा संदेश की मुद्रा में नहीं वरन कहानी के स्वर में ऐसा गुंथा है कि वह हमें पाठ में स्वयं प्राप्त होता है। उदाहरण के लिए संग्रह की कहानी ‘धुंधला-धुंधला आकाश’ नायिका पूजा की प्रेम कहानी है, जो असल में तीन पीढ़ियों के बीच बदलते संबंधों की कहानी है। इस में बीच की पीढ़ी का दायित्व-बोध कहानी में मुखरित है, किंतु साथ ही यह संदेह भी यहां अभिव्यंजित होता है कि क्या ऐसा होना चाहिए।
      कहानी ‘लड़कपन’ की नायिका सीमा आत्म-हत्या कर लेती है, और इसे अमर-प्रेम की संज्ञा देती है। यहां यह संदेस है कि यह अमर-प्रेम नहीं वरन एक आवेग है। अब भी हमारे समाज में रूढ़िग्रस्त मानसिकता और विभिन्न विभेदों की दीवारें प्रेम को रोकती-टोकती है। प्रेम की जटिलता और द्वंद्व का चित्रण कहानी में देखा जा सकता है।
      कहानी ‘खेजड़ी की साख’ की नायिका लक्ष्मी का प्रेम उसके वर्तमान को धवस्त कर देता है और वह प्रेम की असफल से मनोरोगी होकर जीवन जीने को मजबूर होती है। यहां ठाकुर और किसान में वर्गों का विभेद और संबंधों को एक उदाहरण के रूप में समझा और देखा जाना चाहिए। कहानीकार प्रेम को विभन्न कोणों द्वारा देखना-समझना और समझाना चाहता है।
      सुमन और अशोक की प्रेम कहानी है ‘अनछुआ अहसास’, जिसमें मनीषा के माध्यम से प्रेम-विवाह का एक सत्य अथवा संदेह प्रकट होता है। कोई भी घटना किसी वर्तमान के समक्ष प्रमाण हुआ करती किंतु ऐसा ही होगा यह संभव होने का प्रमाण नहीं होती है। प्रेम-संबंधों में हल्की-सी चूक थोड़ी-सी नादानी और नासमझी सब कुछ तबहा और बरबाद कर देती है। कहानी में परिवार का कहना मानना एक संदेश है, किंतु उससे भी बेहतर इसे कहानी में विकसती विवेक सम्पन्नता के रूप में देखा जा सकता है।
      ‘अधूरा सपना : अधूरा इजहार’ की नायिका नीलम प्यार में जान दे देती है। ऐसी घटनाएं समाज में होती है और उस क्षण विशेष की विवेकहीनता के परिणाम को कहानी अपने सुंदर संवादों, सहज भाषा और कथानक के साथ अनेक मनोभावों को प्रकट करती हुई, युवा पीढ़ी को समझने के साथ समय रहते संभाल जाने का एक जरूरी संदेश भी देती है। इसी भांति कहानी ‘अनकहा सच’ में ललिता का संकल्प है तो ‘अधूरी प्यास’ में जीवन के एकाकीपन में चीनी कम जैसा कथानक जवान और कच्ची उम्र के गलत फैसलों का विवरण भी है।
      समग्र रूप से ‘अनछुआ अहसास और अन्य कहानियां’ का पाठ प्रेम के विविध रूप से रू-ब-रू होने जैसा है। प्रेम का होना जीवन में बेहद जरूरी है। मैं यहां अपनी काव्य पंक्तियों का स्मरण करता हूं- जो है खिला हुआ/ उस के पीछे प्रेम है/ जहां नहीं है प्रेम/ वहां सुनता हूं-/ खोखली हंसी। मित्रो, इस कहानी-संग्रह को हमारी खोखली होती हुई हंसी को बचाने के रचनात्मक उपक्रम के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।
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     बाल उपन्यास ‘अपना होता सपना’ में कथा-नायक नितिन की संघर्षभरी प्रेरक कहानी है। जिसमें कर्मशील नितिन का चरित्र एक आदर्श के रूप में सामने आता है। शीर्षक में कौतूहल है कि सपना क्या और कौनसा है? जो अपना कैसे होता है। रूढ़ अर्थों में सपना तो सच और झूठ होता है। या फिर सपने को हम अपना और पराया कहते हैं। खुली आंख से देखा गया सपना ही असल सपना होता है। यह कुछ ऐसा ही सपना था, जिसे सरल-सहज प्रवाहमयी भाषा में रचा गया है। बालमन के समक्ष यह सपना जीवन में कुछ आगे बढ़ कर कुछ कर दिखाने का जजबा जाग्रत करने वाला है। दूसरे शब्दों में ऐसा ही कुछ कर दिखाने का यह आह्वान भी है।
      उपन्यास अपने मार्मिक स्थलों और तीन-चार बिंदुओं के कारण बाल-पाठकों के अंतस को छू लेने का सामर्थ्य रखता है। कहा जाता है कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। अगर उनकी लगन सच्ची हो तो उनको कोई रोक नहीं सकता। इसका एक उदाहरण उपन्यास में नितिन है। वह संस्कारवान बालक है। उसने जीवन में कभी सच्चाई का दमान नहीं छोड़ा। ऐसे प्रेरक चरित्रों के बल पर ही बालकों को शिक्षा मिल सकती है। नैतिक मूल्यों और संस्कारों को पोषित करता मुख्य रूप से बाल साहित्य का उद्देश्य माना जाता रहा है। इस बाल-उपन्यास में मितव्यायता और दूरदृष्टि के साथ नेक इरादों की सफलता का मूल मंत्र एक चरित्र के माध्यम से शब्दों में मूर्त होता है।
      हम व्यस्कों को चाहिए कि बच्चों को आज के हालातों से जितना जल्दी हो सके वाकिफ करा देंवे। यह दोनों पक्षों के लिए उतना ही समयानुकूल है, जितना जीवन के लिए हवा-पानी। आर्थिक समस्याओं से ग्रसित आज समाज में जहां सुख का अकाल है, वहीं मीडिया द्वारा सुनहले सपनों को विभिन्न रूपों में परोसा जा रहा है। यांत्रिक होते मानव-समाज के बीच बाल साहित्य के रचनाकारों को सुकोमल बचपन को बचना है। आज जब साहित्य से समाज दूर होता प्रतीत होता है, ऐसे समय में बाल साहित्य लेखन की सार्थकता बढ़ जाती है। संभवतः ऐसे ही हमारे प्रयासों से बच्चों में शब्दों के प्रति आकर्षण पैदा करने में सफलता मिलेगी। बाल-पाठकों के लिए ‘अपना होता सपना’ का पाठ आकर्षण लिए हुए है, हमें बस उन तक इसे पहुंचा देना है।
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      हमारे कुछ रचनाकार मित्र मधु आचार्य ‘आशावादी’ के लेखन को लेकर उसकी निरंतरता और सक्रियता पर हाथ खड़ा करते हैं। किसी भी स्थान पर जहां प्रश्न रहते हैं, वहीं प्रतिप्रश्न भी उपस्थित हुआ करते हैं। उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करना चाहता हूं कि जब हम कहीं एक सवाल ‘क्यों’ करते हैं, तो तत्काल भीतर दूसरा सवाल- ‘क्यों नहीं’ भी जाग्रत होना चाहिए। जो मित्र ऐसा नहीं करते हैं वे ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने सृजन को लेकर बरसों से दोनों हाथ खड़े कर रखें हैं। निरंतर लेखन की जहां अनेक संभावनाएं होती हैं वहां सीमाएं भी होती है। मैं रचनाशीलता का सम्मान करते हुए बहुत विनम्रता के साथ निवेदन करता चाहता हूं कि किसी भी रचना को उसकी संभवानाओं और सीमाओं में जांचा-परखा जाना चाहिए।
      मेरे विचार से उपन्यास ‘अपने हिस्से का रिश्ता’ को एक विचार प्रधान कथा कहना अधिक उपयुक्त होगा, क्यों कि यह रचना परंपरागत औपन्यासिक ढांचे का विचलन है। मधु आचार्य अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों में भी प्रयोग करते रहे हैं और इसमें भी प्रयोग किया गया है। यहां कथानक का विकास नाटकीय ढंग से किया गया है, जो किसी चित्रपट की भांति पाठकों को अपने पाठ में मुग्ध किए रखता है। ‘आशावादी’ की पूर्ववर्ती अनेक रचनाओं पर मैंने समय-समय पर अपनी बात रखी है और मुझे उनका नियमित पाठक और वक्ता होने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ है। मुझे लगता है कि निरंतर कथा-विधा में सृजनरत रहते हुए मधु आचार्य ने अपनी शैल्पिक संचरना को निर्मित कर लिया है। यहां रचना-घटकों में संवाद-भाषा के रूप में उनकी निजता को रेखांकित किया जाना चाहिए। उनका किसी कथा के प्रति संरचनात्मक कौशल जिस शिल्प और भाषा में अभिव्यंजित होते हुए रूढ़ता को प्राप्त होता जा रहा है, यह एक विशिष्टता है। इसे पृथक से पहचाना गया है। फ्लैप पर कवि-कहानीकार डॉ. सत्यनारायण सोनी ने लिखा है- ‘एक ही सरल रेखीय दिशा में बहती हुई यह कथा लम्बी-कहानी की शक्ल लिए हुए है। पाठक को बांधने में सक्षम तथा एक ही बैठक में पढ़ी जाने लायक। कहूं तो- लेखक कमाल का किस्सागो।
      किसी रचना के विधागत स्वरूप पर विचार करने के साथ-साथ उसके उद्देश्य को भी देखा-समझा और निर्ममता से परखा जाना चाहिए। उद्देश्य-पूर्ति के पूर्वनिर्धारण से कथा दौड़ती हुई चलती है और पाठक को अंत तक बांधे भी रखती है, किंतु इस गति में आस-पास की अनेक संभावनों को भी देखा-समझा जाना अनिवार्य है। अस्तु कहा जाना चाहिए कि उपन्यास की महाकाव्यात्मक अपेक्षाओं से भिन्न मधु आचार्य ‘आशावादी’ अपनी भाषा, संवाद और चरित्रों के मनोजगत द्वारा कथा में एक त्वरा का निर्माण करते हैं। अगर कोई ऐसी त्वरा अपने पाठकों को संवेदित करे और मानवता के लिए उनके अंतस में कुछ करने की भावना का बीजारोपण करे तो इसे रचना और रचनाकार की बड़ी सफलता के रूप में आंका जाना चाहिए।
      यह मेरा व्यक्तिगत मत है किसी भी साहित्यिक-रचना को बंधे-बंधाए प्रारूप में देखने-समझने के स्थान पर नवीन रचना के लिए नए आयुधों पर विचार किया जाना चाहिए। अब पुराने आयुधों को विदा कहने का समय आ गया है। ‘अपने हिस्से का रिश्ता’ की बात करें तो उपन्यास की नायिका को उसके बाल्यकाल में स्वजनों द्वारा मनहूस की संज्ञा दे दी जाती है। उन परिस्थियों और घटनाओं के क्रम में यह कोई नई बात नहीं लगती। वह अपने माता-पिता के विछोह के बाद निरंतर संघर्ष करती है। संवेदनाओं से भरी इस मार्मिक कथा में जो संवादों के माध्यम से नाटकीयता द्वारा जीवन के यर्थाथ को उभारने का कौशल प्रकट हुआ है वह प्रभावित करता है। बालिका जीना चाहती है, वह पढ़ना-लिखना चाहती है। उसका परिवार उससे जैसे किनारा करता चलता है। इच्छाओं के दमन के दौर उस बालिका को मौसी की अंगुली थामने का सु-अवसर मिलता है, यहां मिलता शब्द के स्थान पर लिखा जाना चाहिए कि वह अपने विवेक से उसे हासिल करती है और हर असंभव को संभव बनाती है। संभवत इसी कारण उसे उचित परवरिश में मौसी के घर पलने-बढ़ने के अवसर से वह डॉक्टर बनती है। एक संवेदनशील युवती के रूप में वह मावनता को अपना धर्म समझती हुई एक इतिहास रचती है।
      आज जब समाज में धन की अंधी-दौड़ चल रही है। चिकित्सा पेशे में सेवा के भाव और भावना से अधिक कुछ कमा कर निरंतर आगे बढ़ जाने की होड़ लगी हो, ऐसे दौर में यह कथा प्रेरणा देती है। आधुनिक और बदलते सामाज के बीच यह एक ऐसा अलिखित इतिहास है, जो किसी भी इतिहास में कहीं दर्ज नहीं होगा पर मधु आचार्य ने इसे दर्ज कर दिया है। ‘आशावादी’ अपनी पूर्ववर्ती रचनाओं में भी अनेक मार्मिक विषय को लिपिबद्ध कर चुके हैं, उसी शृंख्ला में ‘अपने हिस्से का रिश्ता’ को देखा जाएगा।
      उपन्यास की नायिका सीमा अंधे भिखारी में अपने खोए हुए रिश्ते को जैसे तलाश करती है, उसके कार्य-व्यवहार और विचार झकझोर देते हैं। इस मर्म को उद्धाटित करते हुए डॉ. सत्यनारायण सोनी ने लिखा है- ‘जिस दौर में जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसे विष तेजी से फैलाए जा रहे हैं, उसी दौर में मानवता का संदेश देने वाली यह अनूठी कथा बताती है कि महज धन कमा लेना ही जीवन का मकसद नहीं होता।'
      समग्र रूप से कहना चाहता हूं कि मधु आचार्य ‘आशावादी’ हमारे यांत्रिक होते समय-समाज और पूरे तंत्र के बीच जिस संवेदनशीलता को बचाने की मुहिम में अपनी पूरी रचनात्मकता के साथ जुटे हैं, जुटे रहें। आपका निरंतर सृजन सदा सक्रिय बने रहें और हर बार नवीन रंगों की मोहक छटा प्रगट होती रहे। अंत में सुरुचि प्रकाशन के लिए सूर्य प्रकाशन मंदिर के भाई श्री प्रशांत बिस्सा एवं मनमोहक आवरणों के लिए भाई श्री मनीष पारीक को बहुत-बहुत बधाई और मंगलकामनाएं अर्पित करता हूं। मुझे फिर फिर अवसर देने के लिए आयोजक मित्रों के लिए ‘हार्दिक आभार’ जैसे शब्द को उसकी पूरी अर्थवता के साथ यहां दोहराना चाहता हूं। धन्यवाद। आभार।
(13 दिसम्बर 2015, रविवार को धरणीधर रंगमच,बीकानेर) 








  1 comment:

  1. मधु आचार्य जी की रचनाधर्मिता की विस्तृत जानकारी प्रस्तुति हेतु आभार!

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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

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संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

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