Thursday, October 27, 2011

राजस्थानी कहानी / बुलाकी शर्मा / अनुवाद : नीरज दइया

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राजस्थानी कहानी 
मधुर संबंध
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कथाकार : बुलाकी शर्मा
अनुवाद : नीरज दइया
सुबह के दस बजे हैं । मैं अब तक कमरे में कुर्सी पर बैठा एक पत्रिका के पन्ने पलट रहा हूं । आज दफ्तर की छुट्टी है इसलिए कोई जल्दबाजी नहीं है ।
बाहर आंगन में वे दोनों वाक-युद्ध कर रही हैं । मैं साफ उनकी आवाजें सुनता हूं, लेकिन हमेशा की तरह चुप हूं ।
बर्तन गिरने की आवाज के साथ ही मां की रोबीली आवाज आई- तेरी आंखें नहीं है क्या ? एकदम नए बर्तन पटक-पटक कर मोच डाले !
मैंने कौनसे जानबूझ कर पटके हैं ? मिनख शरीर है । ध्यान रखते-रखते भी गलती हो जाती है । उसने कहा ।
मां ने फिर कुछ कहा और वह लगातार जबाब दे रही है । मुझे पता है कि आरंभ हुआ यह वाक-युद्ध एक घंटे से पहले समाप्त नहीं होगा । वह भी लगातार काम करती-करती  अपना मुंह चलाती रहेगी । मां उसके बोलने से गुस्सा करती रहेगी । जब मां उसकी सातों पीढ़ियों में नुक्स निकालने लगेगी तब वह हार कर आंसू बहाने लगेगी । इस युद्ध का समापन हमेशा ऐसे ही होता है ।
कुछ देर बाद मां मेरे पास आएगी और उसकी गलतियां बताती हुई कहेगी- तेरी पत्नी की जबान बहुत लम्बी हो गई है । सास की जरा भी इज्जत नहीं रखती । मन में आए जैसे ही बोलती है । यह मुझे पसंद नहीं हां…। लापरवाही से काम करती है और उस पर जबान भी चलाती है ! जब देखो बर्तन गिराती रहती है । बिना जरूरत आग जलती रहती है, बिना जरूरत बिजली बर्बाद करती रहती है । इस मंहगाई के दौर में ऐसे करेगी तो पैर ऊपर होते देर नहीं लगेगी ।
मैं कुछ जबाब देने की स्थिति में खुद को नहीं पाता । मैं जानता हूं कि मैंने जरा-सा भी पत्नी का पक्ष लिया तो मां आपे से बाहर हो जाएगी और मुझे जोरू का गुलाम कहने में देर नहीं लगाएगी । मां का स्वभाव ही ऐसा है । मां को किसी का सामने जबाब देना सहन नहीं होता । उसे खुश रखना हो तो उसकी बातें चुप चाप सुनते  रहो । जबाब देने से मां का पारा चढ़ जाता है । फिर तो उनका बोलना जैसे बंद होने का नाम ही नहीं लेता ।  वह मां को पलट कर जबाब देती है इसलिए उन दोनों में ठनी रहती है ।

रात को वह पूरे दिन का लेखा-जोखा मेरे सामने रखेगी । दिन में हम मिल-बोल नहीं सकते । शादी को लगभग एक वर्ष हुआ है । घर में रिवाज है कि दिन के समय वह मेरे कमरे की तरफ भी नहीं आ सकती । उसे बहुत बुरा लगता है यह बंधन । मुझे भी लगता है । पर क्या करें ? अभी तो बड़े भाई साहब भी दिन में भाभी से बतियाते नहीं जब कि पांच-छ्ह साल के उनके बच्चे हैं । हम तो एकदम नए है अभीतक ।
वह हमेशा की तरह कहेगी- आप चुप चाप क्यों सुनते रहते हो । आप अपने कानों से सुनते हो कि गलती मेरी नहीं होती । मां की आदत पड़ गई है  बेवजह गुस्सा करने की । छोटी-छोटी बातों में कमियां निकालती रहती है, बात-बात में मेरे पीहरवालों को बिना काम घसीटती रहती है । मुझ से सहन नहीं होता ।
थोड़ा धैर्य रखा कर । मैं कहूंगा ।
कितना धैर्य रखे कोई ! वह गुस्से से कहेगी- हर बात में मीन-मेख निकालना, अरे वाह ! चन्द्रमा की रोशनी है तो लाईट नहीं जलाओ, कोयले मत जलाओ, गोबर की थेपड़ियो से काम चलाओ ! पन्द्रह दिनों से साबुन से स्नान करती हूं फिर भी कहती है कि हमेशा साबुन लगती हूं । अब बताओ ना कितना धैर्य धारण करू ?    
मैं आहिस्ता से कहूंगा- देखो, मां का स्वभाव पुराना है…छूट नहीं सकता । तुम तो समझदार हो, पढ़ी-लिखी हो, बना कर रखा कर ।
बहुत दिनों तक रखा । अब तो गले तक आ गई, सहन नहीं होता । मैं तो कहती हूं कि राड़ से बाड़ भली । हम अलग हो जाएं ।
क्या …! पागल हो गई हो ? सुनकर मैं गंभीर हो जाता हूं- लोग क्या कहेंगे ? शादी को एक बरस नहीं हुआ और अलग हो गए । मंझले भाई साहब को भी लोगों ने कितना भला-बुरा कहा……फिर अभी तो बड़े भाई साहब भी साथ रहते हैं । यह अलग बात है कि उनको अपने ट्रांसफर की वजह से मां के साथ रहना नसीब में नहीं रहा है।
मुझे मालूम है कि वह-कह सुन कर चुप हो जाएगी । वह हमेशा की लड़ाई से बहुत दुखी रहती है । दुखी तो मैं भी रहता हूं पर कोई उपाय नजर नहीं आता । मां का स्वभाव आरंभ से ही ऐसा ही रहा है । जब से मैंने समझ ली है तब से मां को ऐसे ही बोलते देखा है । पहले दादी जी से बोलती थी, फिर भाभियों के साथ और अब मेरी पत्नी के साथ ।
मां में कमी निकालने का अभिप्राय है कि इस घर से हमेशा के लिए नाता तोड़ना । मंझले भाई ने मां के कठोर स्वभाव को जब सहन नहीं किया और भाभी का पक्ष लिया तो उन्हें घर से अलग होना पड़ा था । उन्हें अलग करते समय कुछ नहीं दिया ! सबको पता है कि पिता जी के पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है । चार-पांच मकान है उनके नाम । नकद धन भी काफी है । परन्तु पिता जी भी मां के स्वभाव के आगे लाचार है जैसे वह कहती है करते हैं ।  
बड़े भाई साहब ने अपनी मर्जी से जानबूझ कर बहर तबादला करवा लिया है । यह मैं जानता हूं । ऐसे तो साथ होने का दिखावा करते है और अलग रह रहे हैं ! भाभी ने एक बार कहा था- सरकार समझदार है । घरवालों से दूरियां बना देती है, दूरी से मधुर संबंध बने रहते हैं ।
मुझे भी लगता है ऐसे ही करना होगा । अलग होने की गलती मैं नहीं करूंगा । एक तो मंझले भाई साहब जैसी दुर्गति हो जाएगी और ऊपर से जग-हंसाई अलग कि पत्नी के आते ही मां से अलग हो गया ।
यह गहरी बात वह नहीं समझ रही है इसीलिए उसे बारबार मैं धैर्य रखने की सीख दे रहा हूं ।
मैं इस कोशिश में अवश्य हूं कि कहीं बाहर तबादला करवा कर मुक्त हो लूं फिर कभी कभार मिलना होगा और संबंध मधुर बने रहेंगे ।

कथाकार : बुलाकी शर्मा ;  अनुवाद : नीरज दइया
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नीरज दइया
द्वारा- सूरतगढ़ टाइम्स, 
पुराना बाजार बस स्टैंड़, 
सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर)
Mob.: 9461375668 
E-mail : neerajdaiya@gmail.com


नेगचार पर बुलाकी शर्मा का व्यंग्य देखें

Tuesday, October 25, 2011

कविता- थांरी साख मांय


(आदरजोग श्री कन्हैयालाल भाटी खातर)

अंधारै मांय भटक जांवतो
जे थे नीं बतावता
मारग।
श्री कन्हैयालाल भाटी

कांई हुवै...
फगत बतायां मारग
जे नीं बापरै पतियारो
जे नीं हुवै सरधा
जे नीं हुवै मन
नीं जागै उमाव
अर नीं आवै लड़णो?

पीड़ मांय
रैयो म्हैं रातूं
फगत थां ईज देख्यो
म्हैं नदी हो-
आंसुवां री।

थांरी साख मांय
म्हैं करी ओळख
कै कांई-कांई कर सकै है पग
अर कांई-कांई करीज सकै है
पगां सूं।

भीड़तै मोरचै ई
हुई सैंध
अबखै मारग सूं।

म्हैं ओळख लियो
कै किसो मारग
कठै जावै- पूगावै है?
आज मारगां रै डाट्‌यां
नीं डटूलां सरकार।

म्हैं टोपो हूं
भलांई थारी जाण मांय
पण नदी हूं
म्हारी पिछाण मांय।

पतियारो है म्हनै
म्हैं पाछो बावड़ूंला
बण परो मेह
थांरै गांव!
म्हारै गांव!!
***

Tuesday, October 04, 2011

आलोचना रै आंगणै / पोथी परख : पारस अरोड़ा

लूंठा कवि श्री पारस अरोड़ा पोथी "आलोचना रै आंगणै" री परख करी है, हेताळू पाठकां री नजर है खुद पारस जी रै मोती जैड़ा आखरां मांय ढळी आ परख-

पोथी : आलोचना रै आंगणै / डॉ. नीरज दइया 

पैलो संस्करण : मई, 2011 

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन
एफ-77, सेक्टर 9, रोड नं. 11, 
करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम
जयपुर-302006 

मोल-150 रिपिया



डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

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